Monday, February 25, 2013

लल्ला पुराण ६८

एक प्रथक बटोही नामक सज्जन ने मुझे संबोधित करके मार्क्सवाद का मर्शिया का एल थ्रेड पोस्ट लिया उनका वक्तव्य और अपना कमेन्ट कापी-पेस्ट कर रहा हूँ:

Prathak Batohi सर जो बात मैं लिखने जा रहा हूँ उसे आप व्यक्तिगत मत लीजिएगा ये पूरी पीढ़ी के लिए मेरा मत है बुरा मत मानियेगा आप लोगो की खेप आखरी है इसके बाद मार्क्सवाद निपट जाएगा, पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर भगवान् के अतिरिक्त किसी की भक्ति में विश्वास नहीं है. ना ही इस बात का डर की इस बात से ये हाइकमांड नाराज़ होगा उस बात से ये पोलित ब्यूरो
7 hours ago · Like

Ish Mishra हमारे गाँव में एक कहावत है कि गिद्ध के मनाने से डांगर नहीं मरते, मार्क्सवाद को निपटाते-निपटाते कितने ही पातकी इतिहास के कूड़ेदान में सड गए. आप जैसे भगवान-भक्तों के कीर्तन से मार्क्सवाद खत्म होता तो दुनियाँ भर के पूंजी और फिरकापरस्ती के दल्लों के सिर पर मार्क्सवाद और नक्सलवाद का भूत न सवार रहता. किसी ओझा की मदद लीजिए. भगवान आपको सद्बुद्धि दे अगर उसके पास खुद हो तो!! मार्क्सवाद के नाम से आप जैसे लोगों की बौखलाहट देख काफी सकून मिलता है. मार्क्स के जीवनकाल से ही लोग मार्क्सवाद का मर्शिया पढ़ रहे हैं, लेकिन आजतक दुनिया भर के भूमण्डलीय पूंजी के दलालों को मार्क्सवाद लगातार परेशान कर रहा है. मोदी का चरणामृत ग्रहण कर चैन की नींद सोंये क्यों बेचैन हो रहे हैं. ज्यादा दर लगे तो हनुमानचालीसा पढ़ लें.
about an hour ago · Edited ·


इस पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स पर मेरे दो कमेन्ट:

Vinay Pratap मेरा बचपन कट्टर ब्राह्मणीय कर्मकांडी माहौल में बीता है जिसमें यह बताया जता था कि हनुमान चालीसा पढ़ने से भूत का भजे क्ल्हतं हो जाता है, इसी लिए मैंने मार्क्सवाद के भूत से भयभीत बटोही साहब को सलाह दी हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए, टीआरपी के कारण नहीं. हाँ आपने अपने पिता  से जो सुना मार्क्सवाद के बारे में उससे आगे जानने का प्रयास नहीं किया. बाकी आप हनुमान चालीसा पढ़ें, संतोषी चालीसा पढ़े या लालू/मोदी चालीसा पढ़ें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? संस्कारों में मिले ज्ञान/अज्ञान पर अडिग रहने के लिए आपको साधुवाद.मैंने तो अपने संस्कारों को १३ साल ममे जनेऊ तोड़ने के साथ ही छिन्न-भिन्न करना शुरू कर दिया था. मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि आपके पिता(अपने ही पिता के तरह उन्हें नमन, लेकिन पते में कौन ठकुरई, बचपन में मेरी 'बहुत अच्छे बालक की छवि को पहला धक्का तब लगा जब लोगों को पता चला कि मैं तो अपने पिता/दादा से भी तर्क-वितक करता हूँ) ने मार्क्सवाद कसा 'म्' भी नहीं पढ़ा होगा और आपने भी उन्ही की परम्पसरा को आगे बढ़ाया अन्यथा मार्क्सवाद के बारे में दाल-नमक के ज्ञान से थोड़ा आगे बढते. आप सही कह रहे हैं कि मार्क्सवाद की नैतिकता उसकी एक प्रमुख अवधारणा "THEORY OF PRAXIS" यानी कथनी और करनी की द्वंद्वात्मक एकता में निहित है. मैं तो संस्कारों में मिली नैतिकता को इतना छिन्न-भिन्न कर चुका हूँ कि मेरे दादा जी, एक "उच्चकुलीन"कट्टर ब्राह्मण जो अपने पोते/पोती की शादी किसी "निम्नकुलीन" ब्राह्मण में भी नहीं करते, उनके पोते को मालुम भी नहीं कि उनकी परपोती जिस विजातीय/कुजातीय बालक  से शादी करने जा रही है, उसकी जाति/धर्म  क्या है? वैसे बचपन में ही न कर दिया होता तो यह "कुकर्म" उनके जीवनकाल में ही शायद उनका पोता ही कर देता. मित्र बिना भूमिका भी पढ़े किसी पुस्तक की फत्वानुमा समीक्षा से थोड़ा परहेज करें, शिक्षकों के लिए यह नसीहत ज्यादा जरूरी है. अन्यथा Praveen Hrb जाप का मशविरा आपके लिए उचित होगा.

Shashank Tiwari  शुक्रिया कि आपने मार्क्सवादियों को ईमानदार तार्किक और विचारवान बताया वैसे उन्हें आपकी सनद की जरूरत नहीं है, साथ यह भी कहा वे तर्कसम्मत नहीं हैं. logical and rationality में अंतर स्पष्ट करेंगे? मैं खुर्शीद का सवाल दुहराता हूँ कि आपने मार्क्स (या गांधी) की कौन सी पुस्तक/लेख पढ़ा है कि दोनों के तुलनात्मक अध्ययन की नसीहत दे रहे हैं? आपकी बात उन पोंगापंथी जाहिलों जैसी लगती है जो वेद के किसी भी मन्त्र को पढ़े बिना वेदों को सभी ज्ञान-विज्ञान का श्रोत घोषित कर देते हैं. ऐसे इतिहास-च्युत मूर्खों को यह नहीं मालुम कि इतिहास की गाड़ी में बैक गीयार्ट नहीं होता. अपने सन्दर्भ में ज्ञानी, हजारों साल पहले के हमारे अर्ध-खानाबदोश रिग-वैदिक चरवाहे पूर्वज आगे के ज्ञान-विज्ञान का आधार तो तैयार कर सकते थे, लेकिन भविष्य की पीढ़ियों से ज्यादा बुद्धिमान कैसे हो सकते थे? किस बिना पर आपने मार्क्सवाद को धर्म घोषित कर दिया आपने मैं नहीं जानता लेकिन दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो या मार्क्स के किसी लेखन की भूमिका का पहला पैरा भी नहीं पढ़ा. जहालत से सार्वजनिक स्पेस का दुरुपयोग एक बौद्धिक अपराध है. विनय प्रताप जी को जो सलाह दिया वही आपको भी दे रझा हूँ कि किस्दी पुस्तक की फटावानुन्मा समीक्षा करने के पहले कम-से-कम उसकी भूमिका पढ़ लें. वैसे हमारे मुल्क में बिना जाने-समझे कही-सुनी और अफवाहों के आधार पर किसी विषय पर निर्णायक राय देने की जहालत की गौरवशाली परम्परा है और आप जैसे लोग उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं. 

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