Sunday, February 10, 2013

लल्ला पुराण ६४

सुख-दुःख के चयन की एक पोस्ट पर कुछ कमेन्ट: मैंने तो जीवन के सारे चयन ज़िंदगी के मकसद की तलाश में किये और खुद के चुने रास्ते के कष्ट भी बीत जाने पर सुखदायक लगते हैं. इलाहाबाद में १८ की उम्र में फैसला किया घर से पैसा न लेने का, शुरू में घबराहट हुई, पर ओखली में सर दे दिया तो..... तब से आजतक जीरो बैलेंस की ज़िंदगी का आनन्द लेते हुए कभी कोई काम नहीं रुका. मन का सुख इन्द्रिय सुख से ज्यादा आनंददायक होता है. शशांक: हाँ, सही कह रहे हैं सर, एक बात यहाँ पूछ सकता हूँ ? कि जैसे अपने सारे फैसले आपने खुद लिए , वैसे ही शादी का भी? वह फैसला लेने का आत्मविश्वास आने से पहले हो गयी. एक साल और देर होती तो या शादी ही नहीं होती या अपने चयन की. और एक कुरीति के यदि दो शिकार हों तो ज्यादा सह-शिकार के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता, इसीलिये इस विवाह को निभाने का फैसला खुद का है. मेरी बेटी पर यह दबाव नहीं है तो उसने अपनी शादी का फैसला खुद लिया है. कल उसकी सगाई है और मुझे कोई चिंता ही नहीं हो रही है. शशांक: क्या बात है सर! निभाने का फैसला खुद का है !!! यह फैसला तो शादी के सामान्य फैसलों से कहीं ज्यादा बड़ा है - कहीं अधिक बड़े संकल्प-स्वातंत्र्य का परिचायक है ....अन्यथा कोइ और होता तो परिवेश बदलने के साथ इसे भी बदला देता ... मैं बहक तो नहीं रहा सर ? Shashank Shekhar हाँ किशोरावस्था की शादी को निभाने का फैसला खुद का है. बिलकुल सही कहा और जब भी किसी महिला मित्र से घनिष्ठता बढ़ी तो मैं अपनी वैवाहिक स्थिति और इसे निभाने के संकल्प से अवगत करा देता था और अब सभी वैसे ही अवगत हैं. जीवन में सब कुछ नहीं मिलता. शादी के चयन के अधिकार के बदले अंतरात्मा की हिफाजत करते हुए उसूलों की ज़िंदगी का सुख तुलनात्मक रूप से कम नहीं है. चलो एक बात शेयर करता हूँ. कोई ३२-३३ साल पुरानी बात होगी. जे.एन.यु. में एक बार एक "प्रगतिशील" संगठन की एक सक्रिय सदस्य जो अपनी पार्टी की महिला शाखा की पदाधिकारी भी थीं, ने कुछ ऐसा कहा कि मैं अवाक रह गया. हमारे संगठन के साथ कुछ राजनैतिक डील करना चाहती थीं. भूमिका के रूप हल्के-फुल्के अंदाज़ में निजी बातों से बात शुरू किया. मेरी "दुखती" (अपनी समझ से, क्योंकि मैं सोचे-समझे फैसलों पर अफ़सोस नहीं करता ) रग और कंधे पर हाथ रखते हुए बोलीं, "Ish! your is child marriage, you can easily get rid of it." मैं कुछ पल तो हतप्रभ रहा फिर बोला. "Com.! what is your interest? I never showed any inclination to propose you. And I am shocked at your feminist sensibility. If 2 people, equally independent of their conscious will, are victims of some social evil, there should be a minimum camaraderie of co-victim-ship. You are advising one co-victim to further victimize the more co-victim, as in a patriarchal society women are greater sufferers." कोई नहीं कहता कि "इतना पढ़ा-लिखा" और सज्जन बालक की बचपन की छवि वाले लड़के ने छोड़ दिया तो जरूर कुछ गडबड होगा. य्ज्ह कोई नहीं कहेगा कि ४ अक्षर पढ़ कर संयोग से शहर पहुँच गया और शहरी लड़कियों के चक्कर में अपनी जड़ों और माजी के साथ गाँव की सीढ़ी-सादी "अपढ़" पत्नी (उन दिनों हमारे गावों में लड़कियां ५ तक पढ़ती थीं, इस बार की गाँव यात्रा पर सड़कों परआत्म-विश्वास से लबरेज साइकिल सवार छात्राओं के झुण्ड देखकर बहुत सुख मिला) को भी भूल गया. उसूलों को निभा पाने का सुकून उसके नुकसानोपर भारी पड़ता है.

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