एक सज्जन ने मुसलमानों और औरतों के अंदर असुरक्षाबोध की समानताओं पर एक लेख पर अपने विचार फेसबुक पर प्रसारित किये. उनके विचार और अपना जवाब में यहाँ दे रहा हूँ.
अनिल चमडिया जी का कल एक लेख जनसत्ता में छपा जिसकी शुरुआत उन्होंने ‘महिलाओं की आजादी की सुरक्षा’ व् ‘महिला की सुरक्षा’ के तकनिकी अंतर पर प्रकाश डालते हुए की, ऐ भैया, प्रकाश डालते डालते वे तो नरेन्द्र मोदी पर चले गए लगे फिर पहुंचे ‘मुसलमानों की सुरक्षा’ व् ‘मुसलमानों की आजादी की सुरक्षा’ के अंतर पर फिर कहा रुकने वाले थे सबको लपेट दिया पूरा मेनस्ट्रीम समाज को लगे समझाने. पहले महिला वाली बात से तो लगा था की जेएनयु की दिमागी हलचल जिसमे पितृसत्तात्मक समाज के विरुद्ध विचार व्यक्त करने की नूतन परम्परा है, जो आजकल गोष्ठियों में भी झलकने लगा है को लेखक ने अपने लेख के माध्यम से उठाया है, पर नहीं मामला तो कुछ और ही था लेखक ने वही चीज़ मुस्लिम वर्ग से जोड़ दी.
अभी हाल ही में, आमिर खान ने भी दिल्ली के कालेज में आकर इसी पितृसत्तात्मक समाज पर बात रख कर अपनी बौद्धिकता में चार चाँद लगवाये है. फिर भले क्यों ना उन्होंने एक भरे पूरे परिवार जिसमे युवा पुत्र पुत्री निष्ठावान पत्नी को अधेड़ उम्र में त्याग कर विवाह रचाया हो, खैर आमिर के पास तो एक टीम रहती है जो उनको बौद्धिक मार्केट के लेटेस्ट ट्रेंड बताती है, और आमिर वैसे ही बोलते है. आमिर जिस समाज में रहते है वहा बुरका या गर्भनिरोधक के इस्तेमाल पर रोक जैसी पितृसत्तात्मक समाज बुराई भी नहीं है, पर मेरी समझ में ये नहीं आता की लेखक किस युग के अवतारी पुरुष है. क्या उन्हें लगता है मुस्लिम असुरक्षा भाव से पीड़ित है ?? अगर उत्तर हां है तो क्या उनके पास अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए कोई तथ्य है ??
अपनी बात को ख़त्म करने से पूर्व एक बात रखना चाहता हूँ कल NDMC(नई दिल्ली म्युनिस्पलिटी) ने कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर में आने वाले भक्तो की गाडियों को चालान शुरू करने का निवेदन पुलिस से किया है क्यूंकि मंदिर के सामने आधिकारिक पार्किंग नहीं है, क्या NDMC मुस्लिम धार्मिक स्थलों के सामने शुक्रवार को सड़क जाम की मामूली बात पर ऐसा फैसला ले सकती है? इन सब प्रश्नों के कारण धरातल पर अनिल चमडिया जी का लेख महेज लेख लिख कर छपवाने की एक्सरसाइज से ज्यादा कुछ नहीं लगा.
मेरा जवाब
आप के दिमाग में भरा संघी गोबर जब तक नहीं निकलेगा तब तक आप नरेंद्र मोदी जैसे सामूहिक ह्त्या और सामूहिक बलात्कार के आयोजकों की फासीवादी आपराधिक मानसिकता की ग्रंथियों से मुक्त होकर महिलाओं और मुसमानों के अंदर मर्दवादी और साम्प्रदायिक विचारधारा के लंमबरदारों द्वारा पैदा आतंक के भय की समानता नहीं समझ सकते. कल्पना कीजिये आप २००२ में गुजरात के बड़ोदा जिले के एक गाँव के एक मुसलमान हैं.महीनों से हिटलर के कमीने मानसपुत्रों, मोदियों और तोगदियोंयों द्वारा से वितरित गैस सिलिंडर/बम/तलवार/त्रिशूल/ सोडा बोतल आदि हथियारों से लैस एक हजार अपराधी, बजरंगी लम्पट आपकी बस्ती पर हमला कर देते हैं और आपको मारने के पहले बाँध कर आपके के सामने आपकी बहन/माँ/और बेटी को जलाने के पहले हर एक के साथ २०-२०/२५-२५ इंसानी भेष के हैवान नंगा करके सामूहिक बलात्कार करते हैं और उनके जननांगों में राड या बांस घुसेड़ देते हैं और कहते हैं कि बलात्कारियों/हत्यारों के तलवे चाटो तो बच जाओगे, क्या करेंगे आप? आप के अंदर औरत की असुरक्षा होगी या मुसलमान की? या पाकिस्तान में यदि मोदी सरीखे मुस्लिम आततायी हिंदुओं के साथ ऐसा करते हैं तो उनके अंदर कैसी असुरक्षा होगी? बचपन से ही आपके दिमाग में जो सांप्रदायिक गू भरा है उसे थोड़ा साफ़ कर लें तो तर्क की ये बातें थोड़ा समझ सकेंगे. दिमाग को साफ़ करने की बजाय उसमें और भी गू भरते जायेंगे तो सडांध की बदबू में फिरकापरस्त मर्दवादी सूअर की तरह जीते हुए बदबू फैलाते मर जायेंगे. भगवान आपको सद्बुद्धि दे अगर है कहीं तो!
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