Thursday, February 28, 2013

The Price of the Bread


मित्रों "रोटी का दाम" शीर्षक की अपनी  तुकबंदी का मैंने अंग्रेजी अनुवाद का प्रयास किया है जो कि अपने ही किसी लेखन के पद्यात्मक अनुवाद का मेरा पहला प्रयास है.भाषागत एवं अन्य  सुधार के सुझावों के लिये कृतग्य महसूस करूँगा.

The Price of a bread
Ish Mishra

Counselled a noble man to a poet in a biblical tone
Helping poor shall invite the curse of stupor in Society.

Giving a bread to this girl dying from hunger
is to make the species of poor a sluggish lump  of mass.

The poet answered non-poetically
Why is your belly so fat sir?

This is the unfounded vanity of the affluent
as hunger is just a theoretical concept to him.

This is cribbing of the species of the gainfully unemployed
who echo the queen, eat the cake if you don't have the bread.

This is the preaching of those in love with the world
in which the producer begs for a bread.

The distraught girl crying for a bread
does not lack the laboring power and creative will.

If  was the labor guarantee of the bread
She would climb the peaks of Everest

She is hungry not because she has parasitic nature
But because the wankers control the means of labour

If the hording of bread by scoundrels stops
there would be no dignified hand stretched to beg a bread.

Let us together wage a war against hunger
and create a new world of human emancipation
a world in which there are no sky scrappers and no slums
a world in which workers are not freed from means of labour
a world in which no one starves and there is no gainfully unemployed

कायरतापूर्ण पलायन है खुदकुशी


कायरतापूर्ण पलायन है खुदकुशी
नकली जहर पीते हैं  नाकाम आशिक
सहानुभूति की की उम्मीद में
कहते हैं जहर था अमृत माफिक
न जी पाते हैं न मरते ऐसे डरपोक
होते नहीं ये अभागे ज़िंदगी के सुख से वाकिफ
[ईमि/२८.०२.२०१३]

Wednesday, February 27, 2013

लल्ला पुराण ७१


  • Most of us do all the immoral acts to make more and more money in the name of children without asking them. Ask any corrupt official, answer would be for children.Around a decade ago,  I was at a place of a promoted IPS in Guwahati, his son, a student of mine,(then a JNU student and IAS aspirant, now an IAS) joined us for a drink on our request. After a drink, he asked the father, "Dad can I ask you one question?", father: "Go ahead' . Why do you need to go on making more and more money by corrupt means, when we do not need any more". The father was stunned and hopefully would stopped making corrupt money after that, do not know.





 वह लड़का ईमानदार है या नहीं कह नहीं सकता.

मसूरी की ट्रेनिंग के बाद से मुलाक़ात नहीं हूँ. लेकिन मैं तो शिष्य-मित्रों को समझाता रहता हूँ कि यदि वे भ्रष्ट और उसूलों की ज़िंदगी मे आत्महित की तर्कसम्मत गणना करें तो पायेंगे कि दूसरी तरफ ज्यादा + हैं. जिसे समझ आ जाए वह भाग्यशाली है क्योंकि मन का बौद्धिक सुख इन्द्रियों के भैतिक सुख से श्रेष्ठतर है. यह आध्यात्मिक नहीं, भौतिकवादी समझ है. हर बैच में ४-६ को भी यह समझ आ जाती है तो अपने को भाग्यशाली समझता हूँ. पूंजी के निजी स्वामित्व और श्रम-दासता पर आधारित आधुनिक व्यवस्था भविष्य की अज्ञात-अमूर्त असुरक्षा के नाम पर सब्जबाग का भ्रम बेचती है. पूंजीवाद में संचय सिर्फ पूंजी पति ही कर सकता है बाकी संचय के भ्रम में आजीवन तनाव और अपराधबोध में स्वामित्व का गुमान पाले दुखी आत्मा की तरह मर जाते हैं. भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों का अगर उदाहरण लें. एक अधिकारी को सुविधासंपन्न जीवन का वेतन मिलता है अगर पति-पत्नी दोनों उस कोटि में हैं तो तनाव होना चाहिए कि इतने पैसों का क्या करें? भ्रष्टाचार और दलाली करने वाले अधिकारी अंतरात्मा बेचकर, खोखले इंसान के रूप में पैसे और ताकत के गुमान की दयनीय ज़िंदगी जीते हैं और बनिए से पैसा लेकर शेयर-ब्रांड-बीमा-फिक्सेद डिपाजिट-बेनामी संपत्ति आदि में वह पैसा उसी बनिए(कृपया इसे जाति के अर्थों में न लें) को वापस कर देता है, या नाल्को के पकडे गए निदेशक की तरह ४० किलो सोने के बिस्कुट ब्बैंक के लाकर में रख कर मर जाता है. खाता-पीता तो अन्न-मांस और शराब ही है. यानि कि मुफ्त में खुद को बेचता है और कहीं संयोग से पकड़ा गया तो.........                                                     

International Proletariat 26

Please do not take it otherwise, it is not drastically different elsewhere, but Americans are worst in understanding/comprehending the political economy; sociology and human nature and dignity. I had written a poem in Hindi on a post on fb with a picture, of  a beautiful girl in thatchers with grim expressions and stretched hands begging for a bread. The pic was accompanied by a well argued poetry advising people not to make her more fragile by giving her bread but she should work it out for herself. My poetry in response has argued that she is not hungry because she does not want to work but because the means of labour are owned by scoundrels who do not work at all. Capitalism/liberalism is bastard system. it does not do what it says, it does not say what it does. It provides your with freedom to choice of occupation but appropriates all the means of that choice to itself. Rest again. Last sentence: All the human beings wish to live, given a choice, a life of dignity and realization of their creative potentialities but they cant under the system of wage slavery under capitalism. A worker is free in twin ways: He is free to sell his labour and equally free to kill himself.

Monday, February 25, 2013

लल्ला पुराण ७०


Vinay Pratap  मित्र, मैंने आपको नहीं खुद के बारे में कहा कि मैं एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण परिवेश में पैदा हुआ और पला और १३-१४ साल में जनेऊ तोड़ने से नास्तिकता के रास्ते पर बढ़ने के पहले स्नानोपरांत शिव-लिंग की पूजा के बाद ही जलग्रहण करता था. आपने लेनिन से शुरू करके इतने सवाल उठाये हैं कि उनका जवाब यहाँ संभव नहीं है. समाजवाद के संकट पर मैंने १९९२ में एक लंबा लेख लिखा था, खोजकर कभी पोस्ट करूँगा. प्रोफ़ेसर रंधीर सिंह की मोटी पुस्तक, "Crisis of Socialism" इन मुद्दों पर समुचित प्रकाश डालती है. कार्ल मार्क्स कोइ पैगम्बर नहीं थे, हमारी आपकी तरह हांड-मांस के सूक्ष्म और पैनी प्रज्ञा के साधारण इंसान थे जिन्होंने अपने समकालीन समाज की एकल वैज्ञानिक व्याख्या की और मानव-मुक्ति के लिए शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन समाज के निर्माण की कामना. भविष्य के इस मानव-मुक्ति के समाज की रूपरेखा उन्होंने भविष्य की पीढ़ियों की प्रज्ञा पर छोड़ दिया. मार्क्स को पैगम्बर मानाने वाले मूर्खों का मजाक बनाने के ही लिए हंसी में कहा था, "शुक्र खुदा का कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ". मार्क्स के बाद के मार्क्सवादी विद्वानों ने मार्क्सवाद को बहुत समृद्ध किया है, इतिहास में परिवर्तन के साथ मार्क्स की कई मान्यताओं में की आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं. ग्राम्सी का वर्चस्व का सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद को काफी आगे ले जाता है. भूमंडलीकरण में उत्पादन के अनौपचारिक्करण और   आउटसोर्सिंग ने मार्क्स की श्रम-समाजीकरण की अवधारणा को ही ध्वस्त कर दिया और श्रम, के समाजीक्लारण और अपने आप में वर्ग से अपने लिए वर्ग के नए सिद्धांत विक्सित कर्मणे में दुनिया भर में तमाम मार्क्सवादी लगे हुए हैं.

मैंने न तो आपको न आपके पिताजी को बेवकूफ कहा है न आपको. मेरे पिताजी तो एक साक्षर किसान थे और विरासत में मिले  पारंपरिक ज्ञान से आगे बढे ही नहीं थे. आपके पिताजी ने किस सन्दर्भ में मार्क्सवाद को दल में नमक कहा था मुझे नहीं मालुम, शायद उन्होंने उसी तरह परिहास किया होगा जैसे मार्क्स ने मार्क्सवादी न होने के लिए खुदा का शुक्रिया अदा करने का परिहास किया था, मैंने भी  उस परिहास को अंतिम सत्य मांन लेने की आप की अदा पर परिहास ही किया था. सभी से मेरा एक ही आग्रह रहता है कि सार्वजनिक मंचों पर निर्णायक वक्तव्य कही-सुनी बातों या अफवाहों के आधार पर नहीं देना चाहिये जैसा कि हम हिंदुस्तानियों की आम आदत है. हमारे पूर्वज सर्वज्ञ नहीं थे कहने से उनका अपमान नहीं होता क्योंकि इतिहास की गाड़ी में बैक गेयर नहीं होता. मेरे दादा जी पंचांग के कट्टर अनुयायी और इतने कर्मकांडी थे कि भगवान का भोग लगे बिना बच्चों को भोजन नहीं मिल सकता था इस लिए मरती दादी ने मुख्य रसोई से अलग आँगन के एक बरामदे एक छोटा चूल्हा बनाया था. सुबह ७ बजे ऊबड़-खाबड पैदल के रास्ते घर से २४-२५ किमी दूर आठवीं क्लास के परिक्षा केन्द्र पहुँचने के लिए रात १२ बजे मुहूर्त पर ही निकले थे. यदि मैं इन अंधविश्वासों का खंडन करता हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि दादाजी को बेवकूफ समझता हूँ! बल्कि जीवन में जिन लोगों का अतिसम्मान करता हूँ उनमें मेरे स्वर्गीय दादा जे हैं. टेक्स्ट को कांटेक्स्ट में पढ़ने की आवश्यकता होती है. मेरी बातों से यदि आपको लगा हो कि मैंने आपके पिताजी को बेवकूफ खा है तो क्षमा चाहता हूँ, वैचारिक मतभेद के बावजूद सम्मान प्रकट करता हूँ उन्हें मेरा प्रणाम संप्रेषित करें.    

लल्ला पुराण ६९

Ashutosh Srivastava and Shriniwas Rai Shankar  आप लोगों की चीन-युद्ध और इस्लाम के तुलनात्मक अध्ययन कला श्रोत क्या है? बिना भूमिका भी पढ़े पुस्तक की फतावानुमा समीक्षा हमारी मुल्क में स्थापित परम्परा है, आप लोग उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं? युद्धोन्मादी देश-भक्ति हर तरह के दुष्टों/हरामखोरों/लुटेरे-कमीनों की शरणस्थली रही है. अपने दिमागों में भरे जहालत के कूड़े को बाहर निकालें तभी उसमे कुछ ट्रक घुस पायेंगे. भारत-चीन युद्ध के दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार, जनपथ, नेरे दिल्ली में उपलब्ध हैं थोड़ा कष्ट करें तो हकीकत मालुम हो जायेगी. हम मार्क्सवादी, क्रांतिकारी जन-युद्धों के अलावा सभी युद्धों की मुखालफत करते हैं. चीन का नेतृत्व लगातार आग्रह कर रहा था कि सीमा पर सेना का जमावडा नहीं होना चाहिए वरना वे भी जवाबी कार्रवाई करेंगें. लेकिन कृष्णामेनन के सर पर केनेडी और ब्रज्नेव दोनों का वरदहस्त था, वे नहीं माने. चीनी जनसेना ने अपने ही शासकों की सेना/पुलिस को १२ साल पहले ही धुल चाताक्लर क्रांतिकारी सत्ता की स्थापना की थी, और हमारी सेना अंग्रेजों द्वारा हिंदुस्तानियों पर हुकूमत वके लिए बनाई गयी भाड़े की सेना थी जो १५ साल पहले तक अंग्रेज मालिकों के आदेश पर हिन्दुस्तानी आवाम पर कहर बरपाती थी. अंग्रेजों द्वारा कहदी बादे की सेना जन-सेना के सामने नहीं टिक सकती थी. दुनिया के युद्धों के इतिहास शायद यह एकमात्र उदाहरण होगा जब विजयी सेना एक तरफा युद्ध-विराम घोषित करके भागती विपक्षी सेना को कहे कि भागो मत और छिपे और पड़े घायलों का इलाज़ करे क्योंकि अंग्रेंजों द्वारा बनाई हिन्दुस्तानी सेना के पास स्ववास्थ्य-शिविर लगभग नदारत थे.ये बातें आपको रासह्त्रीय अभिलेखागार्ट के दस्तावेजों में मिल जायेंगी क्योंकि ३० साल से अधिक पुराने गोपनीय दस्तावेज उपलब्ध होते हैं. इसी अभिलेखागार में १९४२ में सार्वरकर द्वारा "भारत छोडो आंदोलन" केर विरुद्ध अंग्रेजों के लिओये सैनिक भर्ती के और अटल बिहारी वाजपाई द्वारा क्रांतिकारियों की मुखबिरी के भी दस्तावेज उपलब्ध हैं. मैं तो चीन-युद्ध के समय ५ साल का बालक था. आग्रह सिर्फ इतना है कि तथ्यों-तर्कों के आधार पर बात रखें, दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों के आधार पर नहीं.   

लल्ला पुराण ६८

एक प्रथक बटोही नामक सज्जन ने मुझे संबोधित करके मार्क्सवाद का मर्शिया का एल थ्रेड पोस्ट लिया उनका वक्तव्य और अपना कमेन्ट कापी-पेस्ट कर रहा हूँ:

Prathak Batohi सर जो बात मैं लिखने जा रहा हूँ उसे आप व्यक्तिगत मत लीजिएगा ये पूरी पीढ़ी के लिए मेरा मत है बुरा मत मानियेगा आप लोगो की खेप आखरी है इसके बाद मार्क्सवाद निपट जाएगा, पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर भगवान् के अतिरिक्त किसी की भक्ति में विश्वास नहीं है. ना ही इस बात का डर की इस बात से ये हाइकमांड नाराज़ होगा उस बात से ये पोलित ब्यूरो
7 hours ago · Like

Ish Mishra हमारे गाँव में एक कहावत है कि गिद्ध के मनाने से डांगर नहीं मरते, मार्क्सवाद को निपटाते-निपटाते कितने ही पातकी इतिहास के कूड़ेदान में सड गए. आप जैसे भगवान-भक्तों के कीर्तन से मार्क्सवाद खत्म होता तो दुनियाँ भर के पूंजी और फिरकापरस्ती के दल्लों के सिर पर मार्क्सवाद और नक्सलवाद का भूत न सवार रहता. किसी ओझा की मदद लीजिए. भगवान आपको सद्बुद्धि दे अगर उसके पास खुद हो तो!! मार्क्सवाद के नाम से आप जैसे लोगों की बौखलाहट देख काफी सकून मिलता है. मार्क्स के जीवनकाल से ही लोग मार्क्सवाद का मर्शिया पढ़ रहे हैं, लेकिन आजतक दुनिया भर के भूमण्डलीय पूंजी के दलालों को मार्क्सवाद लगातार परेशान कर रहा है. मोदी का चरणामृत ग्रहण कर चैन की नींद सोंये क्यों बेचैन हो रहे हैं. ज्यादा दर लगे तो हनुमानचालीसा पढ़ लें.
about an hour ago · Edited ·


इस पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स पर मेरे दो कमेन्ट:

Vinay Pratap मेरा बचपन कट्टर ब्राह्मणीय कर्मकांडी माहौल में बीता है जिसमें यह बताया जता था कि हनुमान चालीसा पढ़ने से भूत का भजे क्ल्हतं हो जाता है, इसी लिए मैंने मार्क्सवाद के भूत से भयभीत बटोही साहब को सलाह दी हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए, टीआरपी के कारण नहीं. हाँ आपने अपने पिता  से जो सुना मार्क्सवाद के बारे में उससे आगे जानने का प्रयास नहीं किया. बाकी आप हनुमान चालीसा पढ़ें, संतोषी चालीसा पढ़े या लालू/मोदी चालीसा पढ़ें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? संस्कारों में मिले ज्ञान/अज्ञान पर अडिग रहने के लिए आपको साधुवाद.मैंने तो अपने संस्कारों को १३ साल ममे जनेऊ तोड़ने के साथ ही छिन्न-भिन्न करना शुरू कर दिया था. मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि आपके पिता(अपने ही पिता के तरह उन्हें नमन, लेकिन पते में कौन ठकुरई, बचपन में मेरी 'बहुत अच्छे बालक की छवि को पहला धक्का तब लगा जब लोगों को पता चला कि मैं तो अपने पिता/दादा से भी तर्क-वितक करता हूँ) ने मार्क्सवाद कसा 'म्' भी नहीं पढ़ा होगा और आपने भी उन्ही की परम्पसरा को आगे बढ़ाया अन्यथा मार्क्सवाद के बारे में दाल-नमक के ज्ञान से थोड़ा आगे बढते. आप सही कह रहे हैं कि मार्क्सवाद की नैतिकता उसकी एक प्रमुख अवधारणा "THEORY OF PRAXIS" यानी कथनी और करनी की द्वंद्वात्मक एकता में निहित है. मैं तो संस्कारों में मिली नैतिकता को इतना छिन्न-भिन्न कर चुका हूँ कि मेरे दादा जी, एक "उच्चकुलीन"कट्टर ब्राह्मण जो अपने पोते/पोती की शादी किसी "निम्नकुलीन" ब्राह्मण में भी नहीं करते, उनके पोते को मालुम भी नहीं कि उनकी परपोती जिस विजातीय/कुजातीय बालक  से शादी करने जा रही है, उसकी जाति/धर्म  क्या है? वैसे बचपन में ही न कर दिया होता तो यह "कुकर्म" उनके जीवनकाल में ही शायद उनका पोता ही कर देता. मित्र बिना भूमिका भी पढ़े किसी पुस्तक की फत्वानुमा समीक्षा से थोड़ा परहेज करें, शिक्षकों के लिए यह नसीहत ज्यादा जरूरी है. अन्यथा Praveen Hrb जाप का मशविरा आपके लिए उचित होगा.

Shashank Tiwari  शुक्रिया कि आपने मार्क्सवादियों को ईमानदार तार्किक और विचारवान बताया वैसे उन्हें आपकी सनद की जरूरत नहीं है, साथ यह भी कहा वे तर्कसम्मत नहीं हैं. logical and rationality में अंतर स्पष्ट करेंगे? मैं खुर्शीद का सवाल दुहराता हूँ कि आपने मार्क्स (या गांधी) की कौन सी पुस्तक/लेख पढ़ा है कि दोनों के तुलनात्मक अध्ययन की नसीहत दे रहे हैं? आपकी बात उन पोंगापंथी जाहिलों जैसी लगती है जो वेद के किसी भी मन्त्र को पढ़े बिना वेदों को सभी ज्ञान-विज्ञान का श्रोत घोषित कर देते हैं. ऐसे इतिहास-च्युत मूर्खों को यह नहीं मालुम कि इतिहास की गाड़ी में बैक गीयार्ट नहीं होता. अपने सन्दर्भ में ज्ञानी, हजारों साल पहले के हमारे अर्ध-खानाबदोश रिग-वैदिक चरवाहे पूर्वज आगे के ज्ञान-विज्ञान का आधार तो तैयार कर सकते थे, लेकिन भविष्य की पीढ़ियों से ज्यादा बुद्धिमान कैसे हो सकते थे? किस बिना पर आपने मार्क्सवाद को धर्म घोषित कर दिया आपने मैं नहीं जानता लेकिन दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो या मार्क्स के किसी लेखन की भूमिका का पहला पैरा भी नहीं पढ़ा. जहालत से सार्वजनिक स्पेस का दुरुपयोग एक बौद्धिक अपराध है. विनय प्रताप जी को जो सलाह दिया वही आपको भी दे रझा हूँ कि किस्दी पुस्तक की फटावानुन्मा समीक्षा करने के पहले कम-से-कम उसकी भूमिका पढ़ लें. वैसे हमारे मुल्क में बिना जाने-समझे कही-सुनी और अफवाहों के आधार पर किसी विषय पर निर्णायक राय देने की जहालत की गौरवशाली परम्परा है और आप जैसे लोग उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं. 

Sunday, February 24, 2013

आंसुओं का जलाशय


हमने तो जहमत ही नहीं उठाई
आंसुओं का जलाशय बनाने की
हिफ़ाज़त की जरूरत हो जिनकी
ऐसे साज-ओ-सामान जुटाने की
[ईमि/२५.०२.२०१३]

Saturday, February 23, 2013

लाल्लापुरान ६७



एक सज्जन ने मुसलमानों और औरतों के अंदर असुरक्षाबोध की समानताओं पर एक लेख पर अपने विचार फेसबुक पर प्रसारित किये. उनके विचार और अपना जवाब में यहाँ दे रहा हूँ.
अनिल चमडिया जी का कल एक लेख जनसत्ता में छपा जिसकी शुरुआत उन्होंने ‘महिलाओं की आजादी की सुरक्षा’ व् ‘महिला की सुरक्षा’ के तकनिकी अंतर पर प्रकाश डालते हुए की, ऐ भैया, प्रकाश डालते डालते वे तो नरेन्द्र मोदी पर चले गए लगे फिर पहुंचे ‘मुसलमानों की सुरक्षा’ व् ‘मुसलमानों की आजादी की सुरक्षा’ के अंतर पर फिर कहा रुकने वाले थे सबको लपेट दिया पूरा मेनस्ट्रीम समाज को लगे समझाने. पहले महिला वाली बात से तो लगा था की जेएनयु की दिमागी हलचल जिसमे पितृसत्तात्मक समाज के विरुद्ध विचार व्यक्त करने की नूतन परम्परा है, जो आजकल गोष्ठियों में भी झलकने लगा है को लेखक ने अपने लेख के माध्यम से उठाया है, पर नहीं मामला तो कुछ और ही था लेखक ने वही चीज़ मुस्लिम वर्ग से जोड़ दी.
अभी हाल ही में, आमिर खान ने भी दिल्ली के कालेज में आकर इसी पितृसत्तात्मक समाज पर बात रख कर अपनी बौद्धिकता में चार चाँद लगवाये है. फिर भले क्यों ना उन्होंने एक भरे पूरे परिवार जिसमे युवा पुत्र पुत्री निष्ठावान पत्नी को अधेड़ उम्र में त्याग कर विवाह रचाया हो, खैर आमिर के पास तो एक टीम रहती है जो उनको बौद्धिक मार्केट के लेटेस्ट ट्रेंड बताती है, और आमिर वैसे ही बोलते है. आमिर जिस समाज में रहते है वहा बुरका या गर्भनिरोधक के इस्तेमाल पर रोक जैसी पितृसत्तात्मक समाज बुराई भी नहीं है, पर मेरी समझ में ये नहीं आता की लेखक किस युग के अवतारी पुरुष है. क्या उन्हें लगता है मुस्लिम असुरक्षा भाव से पीड़ित है ?? अगर उत्तर हां है तो क्या उनके पास अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए कोई तथ्य है ??
अपनी बात को ख़त्म करने से पूर्व एक बात रखना चाहता हूँ कल NDMC(नई दिल्ली म्युनिस्पलिटी) ने कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर में आने वाले भक्तो की गाडियों को चालान शुरू करने का निवेदन पुलिस से किया है क्यूंकि मंदिर के सामने आधिकारिक पार्किंग नहीं है, क्या NDMC मुस्लिम धार्मिक स्थलों के सामने शुक्रवार को सड़क जाम की मामूली बात पर ऐसा फैसला ले सकती है? इन सब प्रश्नों के कारण धरातल पर अनिल चमडिया जी का लेख महेज लेख लिख कर छपवाने की एक्सरसाइज से ज्यादा कुछ नहीं लगा.

मेरा जवाब 

आप के दिमाग में भरा संघी गोबर जब तक नहीं निकलेगा तब तक आप नरेंद्र मोदी जैसे सामूहिक ह्त्या और सामूहिक बलात्कार के आयोजकों की फासीवादी आपराधिक मानसिकता की ग्रंथियों से मुक्त होकर महिलाओं और मुसमानों के अंदर मर्दवादी और साम्प्रदायिक विचारधारा के लंमबरदारों द्वारा पैदा आतंक के भय की समानता नहीं समझ सकते. कल्पना कीजिये आप २००२ में गुजरात के बड़ोदा जिले के एक गाँव के एक मुसलमान हैं.महीनों से हिटलर के कमीने मानसपुत्रों, मोदियों और तोगदियोंयों द्वारा से वितरित गैस सिलिंडर/बम/तलवार/त्रिशूल/ सोडा बोतल आदि हथियारों से लैस एक हजार अपराधी, बजरंगी लम्पट आपकी बस्ती पर हमला कर देते हैं और आपको मारने के पहले बाँध कर आपके के सामने आपकी बहन/माँ/और बेटी को जलाने के पहले हर एक के साथ २०-२०/२५-२५ इंसानी भेष के हैवान नंगा करके सामूहिक बलात्कार करते हैं और उनके जननांगों में राड या बांस घुसेड़ देते हैं और कहते हैं कि बलात्कारियों/हत्यारों के तलवे चाटो तो बच जाओगे, क्या करेंगे आप? आप के अंदर औरत की असुरक्षा होगी या मुसलमान की? या पाकिस्तान में यदि मोदी सरीखे मुस्लिम आततायी हिंदुओं के साथ ऐसा करते हैं तो उनके अंदर कैसी असुरक्षा होगी? बचपन से ही आपके दिमाग में जो सांप्रदायिक गू भरा है उसे थोड़ा साफ़ कर लें तो तर्क की ये बातें थोड़ा समझ सकेंगे. दिमाग को साफ़ करने की बजाय उसमें और भी गू भरते जायेंगे तो सडांध की बदबू में फिरकापरस्त मर्दवादी सूअर की तरह जीते हुए बदबू फैलाते मर जायेंगे. भगवान आपको सद्बुद्धि दे अगर है कहीं तो!

Wednesday, February 20, 2013

International Proletariat 25

The US needs to revolution not election followed by the workers of the other parts of the world. The workers and soldiers must turn their guns against their own rulers, the US can take the lead as the workers there have right to bear arms. All of us, the 99% (approximately and metaphorically) of world population, who earn their livelihood by wage-slavery including very high paid executives form the larger workers collective. The ruling classes, to thwart the unity create so many echelons that everyone finds some one to look down at, if not locally, then else where. Workers of the world unite, you have nothing to lose but corporate slavery and the gain would be the human-emancipation. Let us work towards the 4th international of of global humanity.

Friday, February 15, 2013

लल्ला पुराण ६६

The representative democracy or the so-called democracy, as we view it, like the economic system it upholds, is a bastard system in the sense that it never does what it says and never says what it does. Like capitalism. whose superstructure it is, it also thrives on selling illusions. It does not provide the peoples government but only its illusion. If we want the real and not the illusion, we have to create a real peoples' democracy that needs a revolution and students and teachers have been on forefronts in the revolutions of the history. The need is to change the system not the individuals upholding it. 

ज़िंदगी


ज़िंदगी में छिपी हैं संभावनाएं अनंत
धुवें से सिगरेट के होता नहीं उनका अंत
संभाल कर रखो इस जिनगी को अमानत है आवाम की
अंगार छिपे इसमें बनेगी आग इन्किलाब की

Thursday, February 14, 2013

प्यार की तलाश


प्यार खोजने के नाम पर खोजते रहे खुद का दिल
जानते हुए कि खोजने से नहीं मिलता  प्यार
उसी तरह जैसे खोजने से नहीं मिलती खुशी
भटकते रहे दर-दर अन्वेषण के भ्रम में
समानान्तर चल रहा था अपना दिल-ए-यार
मिलने को उससे बस कर लो जहाँ से प्यार
[ईमि/१५.०२.२०१३]

पक्का रंग है प्यार का


पक्का रंग है प्यार का चढ़े न दूजा रंग
खुद को खोजता हर शख्स प्रेयशी के संग
[ईमि/१४.०२.२०१३]

Wednesday, February 13, 2013

वेलेंटाइन दिवस

कहा अमीर खुसरो ने
 उल्टी दरिया प्यार की 
 जो डूबे सो पार
 डूबा हूँ दरिया में प्यार की 
दिखता नहीं कोई ओर-छोर 
पाने को सुगंध माटी की 
तरसे मनवा मोर 
 वेलेंटाइन दिवस मुबारक 
प्यार-मुहब्बत जिंदाबाद
[ईमि/१४.०२.२०१३]

खामोश मुहब्बत

इश्क के खामोश इज़हार-ए-ज़ज्बात/ नाकाबिल हैं करने को इश्क की खुराफात. लेते नहीं जो मुखरता का रिश्क/ कर नहीं पाते इज़हार-ए-इश्क. खामोश मुहब्बत है अपराधबोध का ज़ज्बात/ इश्क तो है दुनिया में सबसे पुण्य की बात. खत्म हो जाए रिश्तों में जो रहस्यवाद के चाल/ हो जाएगा इश्क-ए-इज़हार सभी का वाचाल.

Sunday, February 10, 2013

लल्ला पुराण ६५

परिस्थिति-जन्य खतरों को हम विषम परिस्थिति कहते हैं. ऐसी स्थिति में 'पैनिक' करने से स्थिति और भी विषम हो जाती है और इंसान किम्कर्तव्य-विमूढ़ हो जाता है. घबराहट पर काबू पाकर दिमाग को मुक्त छोड़ दीजिए निजात पाने/निपटने के उपायों पर सोचना चाहिए, यदि कुछ भी न कर सकने की स्थिति आ ही जाए(मानव क्षमता अपार है, किन्तु सीमाओं के साथ) तो परिस्थितियों पर छोड़ दें. सांप का डर की बात पर एक वास्तविक अनुभव याद आ गया. १९८१-८३ की कभी की बात है. में दिल्ली में किसी से मिलने जा रहा था. सड़क और कालोनी के बीच ८-१० फीट चौड़ा फूलों का बगीचा था. शार्ट-कट के चक्कर में बगीचे में से चल रहा था. तभी मुझसे नब्बे अंश की दिशा में तेजी से चलता साँप जूते से नगण्य दूरी पर दिखा. जीव विज्ञान का ज्ञान शून्य होने के नाते कह नहीं सकता कि वह साँप विषैला रहा होगा कि नहीं.कोई भी जीव (सभ्य इंसान को छोड़कर) अनायास हमला नहीं करता. में सांस रोककर जड़वत खड़ा हो गया. और मेरे दांयें पाँव के जूते से होकर जब उसकी पूरी काया गुजर गयी, तन जान में जान आयी. बदनामी का डर की सोचे तो इंसान कोई नया काम करे ही नहीं क्योंकि नए विचारों के प्रति समकालीन लोकमत, दुर्भाग्य से, प्रायः असहनशील होता है, उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए क्योंकि वे अपने समय से आगे की चेतना के पूर्वाभास हैं. लोक-मत की चिंता करता तो आप लोग जानते हैं आभासी दुनिया के कुटुम्बों में वह न कहता जिसके चलते असहज स्थितिया पैदा हुईं. क्या हो गया? मुझे तो लगता है कि इलाहाबाद के आभासी मित्रों से मुझे पात्रता से अधिक सम्मान मिल रहा है. बिल्ली के गले में घंटी बंधना है, तो आप क्यों नहीं. हाँ अपने कदम के औचित्य के बारे में आपको आश्वस्त होना पडेगा.

लल्ला पुराण ६४

सुख-दुःख के चयन की एक पोस्ट पर कुछ कमेन्ट: मैंने तो जीवन के सारे चयन ज़िंदगी के मकसद की तलाश में किये और खुद के चुने रास्ते के कष्ट भी बीत जाने पर सुखदायक लगते हैं. इलाहाबाद में १८ की उम्र में फैसला किया घर से पैसा न लेने का, शुरू में घबराहट हुई, पर ओखली में सर दे दिया तो..... तब से आजतक जीरो बैलेंस की ज़िंदगी का आनन्द लेते हुए कभी कोई काम नहीं रुका. मन का सुख इन्द्रिय सुख से ज्यादा आनंददायक होता है. शशांक: हाँ, सही कह रहे हैं सर, एक बात यहाँ पूछ सकता हूँ ? कि जैसे अपने सारे फैसले आपने खुद लिए , वैसे ही शादी का भी? वह फैसला लेने का आत्मविश्वास आने से पहले हो गयी. एक साल और देर होती तो या शादी ही नहीं होती या अपने चयन की. और एक कुरीति के यदि दो शिकार हों तो ज्यादा सह-शिकार के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता, इसीलिये इस विवाह को निभाने का फैसला खुद का है. मेरी बेटी पर यह दबाव नहीं है तो उसने अपनी शादी का फैसला खुद लिया है. कल उसकी सगाई है और मुझे कोई चिंता ही नहीं हो रही है. शशांक: क्या बात है सर! निभाने का फैसला खुद का है !!! यह फैसला तो शादी के सामान्य फैसलों से कहीं ज्यादा बड़ा है - कहीं अधिक बड़े संकल्प-स्वातंत्र्य का परिचायक है ....अन्यथा कोइ और होता तो परिवेश बदलने के साथ इसे भी बदला देता ... मैं बहक तो नहीं रहा सर ? Shashank Shekhar हाँ किशोरावस्था की शादी को निभाने का फैसला खुद का है. बिलकुल सही कहा और जब भी किसी महिला मित्र से घनिष्ठता बढ़ी तो मैं अपनी वैवाहिक स्थिति और इसे निभाने के संकल्प से अवगत करा देता था और अब सभी वैसे ही अवगत हैं. जीवन में सब कुछ नहीं मिलता. शादी के चयन के अधिकार के बदले अंतरात्मा की हिफाजत करते हुए उसूलों की ज़िंदगी का सुख तुलनात्मक रूप से कम नहीं है. चलो एक बात शेयर करता हूँ. कोई ३२-३३ साल पुरानी बात होगी. जे.एन.यु. में एक बार एक "प्रगतिशील" संगठन की एक सक्रिय सदस्य जो अपनी पार्टी की महिला शाखा की पदाधिकारी भी थीं, ने कुछ ऐसा कहा कि मैं अवाक रह गया. हमारे संगठन के साथ कुछ राजनैतिक डील करना चाहती थीं. भूमिका के रूप हल्के-फुल्के अंदाज़ में निजी बातों से बात शुरू किया. मेरी "दुखती" (अपनी समझ से, क्योंकि मैं सोचे-समझे फैसलों पर अफ़सोस नहीं करता ) रग और कंधे पर हाथ रखते हुए बोलीं, "Ish! your is child marriage, you can easily get rid of it." मैं कुछ पल तो हतप्रभ रहा फिर बोला. "Com.! what is your interest? I never showed any inclination to propose you. And I am shocked at your feminist sensibility. If 2 people, equally independent of their conscious will, are victims of some social evil, there should be a minimum camaraderie of co-victim-ship. You are advising one co-victim to further victimize the more co-victim, as in a patriarchal society women are greater sufferers." कोई नहीं कहता कि "इतना पढ़ा-लिखा" और सज्जन बालक की बचपन की छवि वाले लड़के ने छोड़ दिया तो जरूर कुछ गडबड होगा. य्ज्ह कोई नहीं कहेगा कि ४ अक्षर पढ़ कर संयोग से शहर पहुँच गया और शहरी लड़कियों के चक्कर में अपनी जड़ों और माजी के साथ गाँव की सीढ़ी-सादी "अपढ़" पत्नी (उन दिनों हमारे गावों में लड़कियां ५ तक पढ़ती थीं, इस बार की गाँव यात्रा पर सड़कों परआत्म-विश्वास से लबरेज साइकिल सवार छात्राओं के झुण्ड देखकर बहुत सुख मिला) को भी भूल गया. उसूलों को निभा पाने का सुकून उसके नुकसानोपर भारी पड़ता है.

Saturday, February 9, 2013

International Proletariat 24

Karma means action. By virtue of the fact that we are living, we are acting anyway. Karma, in Marxist terminology, is theory of praxis -- a well thought, socially productive action is the basis of the dynamics of the human history, thereby it has existed ever since our earliest ancestors began to distinguish themselves from the other natural beings by beginning the process through the knowledge of the application of labor. 

International Proletariat 23

This is comment on when should parents stop spanking the children.

Spanking children is inhuman act that causes irreparable damage to the child is born out of stupid understanding of discipline and the child's long term interest. Just remember your childhood and feeling among old of not being cared by their children. We, the parents, not having gone through the process of 'unlearning' to replace the 'acquired moralities' by the 'rational' ones, subconsciously  sadistically transfer our childhood agonies into our children. I am a proud father of 2  daughters. I never burdened them with over-caring; over protection; and any expectation apart from growing up as good human beings, rest would follow as inadvertent consequences and never indulged in the wasteful exercise of controlling their freedom. As far as means of survival is concerned, If someone like Ish mishra, a good-for-nothing, can do one thing or the other, everyone would be able to do something and fight it out. In general, every next generation is always smarter barring the periods of historical stagnation. What the parents/teachers should, rather ought to do apart from blunting innovative; inquisitive; rebel attributes and instilling in them a sense of unknown abstract fear and insecurity; lack of sense of self-belief and confidence, I will write in a different comment. 

Friday, February 8, 2013

International Proletariat 22

The world is beautiful, but its beauty have been made captive of some scoundrels therefore no one should commit suicide but contribute his/her bit in freeing the society and the world so that no one is pushed to the position of ending one's dearest thing, the life. With no value judgement to those having done so, to me suicide is a cowardice escapism from the hard realities of the world. Let us all strive to create a world where no one finds it not worth living; where no one is hungry and where  everyone gets conducive conditions to realize one's creative potentialities. What ever there is in life -- good or bad -- the death is void. Root cause of extreme pessimism that drives one to end the life is the extreme alienation innate in capitalist social relations. Let us endeavor to minimize the alienation and eventually end it by ending the capitalism. Rousseau proved in the 18th century that revolution is not only desirable but possible also. Let us continue contributing our bit to realize the possibility in the 21st century. 

Thursday, February 7, 2013

कोलाहलपूर्ण सुकून



कोलाहलपूर्ण सुकून
ईश मिश्र
हमारी सोहबत में इतना कोलाहलपूर्ण सुकून था
कि खलती रही है कमी एक दूजे की छूटा जब से साथ
लेकिन सच है, निर्वात नहीं रहता
पहले हम साथ थे अब मधुर यादें   हैं पास
अच्छे तो लगे और भी लोग
तुम्हारी अच्छाई थी कुछ खास
अलग-अलग खास होती है हर अच्छाई
[ईमि/०८.०२.२०१३] 

लल्ला पुराण ६३

मैं जब तक यहाँ पहुंचा प्यार के इस संगम पर गंगा-यमुना का काफी पानी मिल चुका और, ऐसा कहने के लिये क्षमा कीजियेगा, महाकुम्भी, सामन्ती धर्मोन्माद गंगा को पर्याप्त प्रदूषित कर चुका. ज्यादातर लोगों के लिये प्यार मर्दवादी वैचारिक वार्चस्व के दायरे मे निर्मित, एक कल्पित, अमूर्त भावना है. सभ्यता मनुष्य के अंदर दोगलेपन का संचार करती है. लोग होते कुछ हैं दिखना कुछ और चाहते हैं; सोचते कुछ हैं, कहते कुछ और हैं; कहते कुछ हैं करते कुछ और हैं. कुछ कमेन्ट दायरे को तोड़ते दिखे कि प्यार दोस्ती है. किसी ने कहा कि प्यार पहले १००% सच्चा  होता था अब १०%. उनके पास शायद प्यार की सच्चाई नापने का अंकगणितीय सूत्र हो? प्यार एक गुणात्मक अवधारणा है मात्रात्मक नहीं. जिसे सब कुछ अच्छा किसी कल्पित अतीत में दिखे और भावी पीढियां पतनशील, वह मानसिक जड़ता का शिकार होता है. इतिहास की गाड़ी में बैक-गीयर नाहीं होता. पहले प्यार नहीं होता था, शादी होती थी, किशोरावस्था में ही, ताकि वे प्यार-मुहब्बत के दल-दल में न फंस जाएँ, लड़की की खास चिंता थी? रात को सबके सोने के बाद "खूंट" खोलते हुए कमरे में घुसो और भोर से पहले "खूंट" बांधते हुए निकलो. दो अपरिचित किशोर-किशोरी आज्ञाकारी बच्चों की तरह अपनी सेक्सुअल उत्सुकताएं शांत करते थे, और वैचारिक वर्चस्व के भार से दबी लड़की बचपन से सिखाये गए मन्त्र को शब्दशः  याद रखते हुए सास-ससुर की सेवा और पति-परमेश्वर की पूजा में एक सम्पूर्ण जीवन की सारी सर्जक संभावनाएं हवन कर देती थी. सहवास (सम्भोग शब्द इस लिये नहीं इस्तेमाल करता कि मूल्यपरक शब्द है जिस पर फिर कभी.) और प्यार को लोग गड्ड-मदद कर देते हैं. मुझे तो बहुत बार प्यार हुआ, आज भी है. कई बार तो पटा ही नहीं चला कि प्यार है कि दोस्ती? सहवास प्यार की गारंटी नहीं है और प्यार के लिये साह्वास जरूरी नहीं. बहुत पहले, एक बार अपनी एक बहुत ही अच्छी दोस्त को मैंने कहा कि हमारी दोस्ती प्यार नहीं है तो उसने मुझे अवाक कर दिया, "Of course you are in love with me, just that we haven't slept together". एक ईमानदार, नैतिक/बौद्धिक घनिष्ठ मित्रता की सगाहं भावानात्मक अभिव्यक्ति ही मेरे लिये प्यार है. दोस्ती में पारदर्शक-पारस्परिकता होनी चाहिए. बाकी फिर कभी.

Tuesday, February 5, 2013

प्रगाश के नाम


क्या सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो,
इस तरह तो कुछ और निखर जायेगी आवाज़
मौजूदा  मौन को मेरी शिकस्त न समझो
फिर उट्ठेगी, हिंदुकुश पार कर जायेगी आवाज
हमारी दावेदारी का यह साज़ चुप है टूटा नहीं
मुफ्तियों की मौत का पैगाम बन जायेगी आवाज़
आगाज ने ही कर दी हराम नीद खुदा के खिद्मद्गारों की
फतवों के ज़ुल्म से अब न दब सकेगी ये आवाज 
 बाज आओ फतवेबाजी की जहालत से
दबाओगे तो और भी बुलंद होगी आवाज़ 
[ईमि/०६.०२.२०१३]

जीववैज्ञानिक दुर्घटना


उठ नहीं पाते जो जीववैज्ञानिक दुर्घटना की पहचान से
करते हैं इज़हार-ए-जहालत अपनी  वहम-ओ-गुमान से
करते हैं वे अपमान तहजीब-ए-सलीका-ए- इंशानियत का
कहते कौमी ईमान और खेलते खेल बर्बर हैवानियत का
नास्तिक हैं हम डरते नहीं किसी भी भूत और भगवान से
डरेंगे क्यों हम अवाम के दुश्मन फिरकापरस्त हैवान से
खुद्दारी ऐसी कि बुलंद हैं इरादे परे इस आसमान से
यकीं खुद पर तो मांगे क्यों दुआ किसी राम-रहमान से
[ईमि/०५.०२.२०१३]

Monday, February 4, 2013

जुबान पर लगाम


क्यों लगे बेबाक जुबान पर कोई लगाम हमारी
कठमुल्ले कर सकें जिससे जहालत के फतवे जारी
देता हूँ खुली चुनौती जो हैं  खुदा-पैगम्बरों के पैरोकार
दम है खुदाई में तो ले मेरा एक बाल  भी उखाड़
(ईमि/4.02.2013)

Friday, February 1, 2013

International Proletariat 21

In a class divided society, non-partisanship is a fraud, class-war is already on for quite long, you have to take sides. those who think they are neutral and apolitical, knowing-unknowingly, are dangerously political in the way that eventually serves the interests of the ruling classes -- the imperialist global capital, in the present context. the heavily fund-needing representative democracy provides the illusion of peoples' government and not the peoples' government and thrives. Not the government but the system needs to be changed and peoples' democracy is the only alternative. 

सुख और मुगालता

सुख और मुगालता
ईश मिश्र

इबादत और मोहब्बत में है छत्तीस का विरोधाभास 
इधर खुदाई का गुमां है उधर पारस्परिकता का आभास 
मान लेता है इंसानी मोहब्बत को जो रूहानी इबादत 
झेलता है तह-ए-उम्र वर्चस्व और गर्दिश-ए- इश्क की सांसत 
इसी लिये ऐ आशिक-दिल इंसानों सीखो मुहब्बत का मूल-मन्त्र 
बुनियाद हो संबंधों का समताबोध और पारस्परिक जनतंत्र
होंगे अगर रिश्ते भगवान और भक्त के खानों में विभक्त 
न होगा सुखी भगवान न ही होगा संतुष्ट अभागा भक्त 
सुख का सार है पारदर्शी, रिश्ते की जनतांत्रिक पारस्परिकता 
शक्ति-समीकरण के संबंधों में होता है सिर्फ सुख का मुगालता 
[ ईमि/०१.०२.२०१३]