Meena Trivedi: आपने यह प्रश्न उठाकर साहसिक काम किया है. हमारे बचपन में कर्मकांडी परिवारों की महिलायें सिला हुआ कपड़ा पहन कर रसोई में नहीं जा सकतीं थीं. कितनी भी कड़क की ठंढ क्यों न हो मेरी माँ/चाची रसोई में बिना बाउज/स्वेटर के ही काम करती थीं. यह यो इतना निर्लज्ज समाज है कि जो उसे रोती खिलाता था वही अछूत. जिस जीववैज्ञानिक प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप उस्कक अस्तित्व है उसे गाली के तौर पर इस्तेमाल करता है. लज्जास्पद तो उसे लगेगी जिसे लज्जा का अहसास हो. निर्लज्ज, वर्णाश्रमी-मर्दवादी समाज में अपनी कुरीतियों और सडे-गले कुतार्किक मूल्यों पर सवाल उठाने और उनकी भर्त्सना करने का नैतिक सहस कहाँ? महिलायें खुद-ब-खुद तोड़े रहे हैं इन सारी वर्जनाओं और नारी-विरोधी मान्यताओं को. हक़ के एक-एक इंच के लिये लड़ना पड़ता है, कुछ भी खैरात में नहीं मिलता. मै अपनी स्टुडेंट्स (और बेटियों) को कहता हूँ कि तुम लोग भाग्यशाली हो जो एक पीढ़ी बाद में पैदा हुए. लेकिन नारीवादी दावेदारी और विद्वता का जो दरिया झूम कर उट्ठा है मर्दवादी वर्जनाओं के तिनको से न टाला जाएगा.
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