Sunday, October 21, 2012

दलित विमर्श २

Ashok Dusadh मित्र मैं आपका प्रतिक्रियात्मक आवेश और  जल्दबाजी में फैसलाकुन गालियों की फतवेबाजी की सोच की संकीर्णता समझ सकता हूँ और बुरा नहीं मानूंगा. जी हाँ बुद्धादेब या सीपीएम/सीपीआई  उसी तरह के कम्यिन्स्त हैं जैसे मुलायाम सोसलिस्ट. लेकिन पूंजी के दला अगर अपने को सोसलिस्ट और कम्युनिस्ट कहें तो यह समाजवाद की सैद्धांतिक विजय है. यह उसी तरह है जैसे बड़े-से बड़े सवर्ण जातिवादी भी जातिवादी कहने की हिम्मत नहीं करते तो यह दलित चेतना की सैद्धांतिक विजय है. एक बार सैद्धांतिक विजय हासिल हो जाय तो इसे कार्यरूप लेना सिर्फ समय की बात है. आप में और मनुवादियों में यह समानता है कि दोनों ही किसी को जीववैज्ञानिक दुर्घटना की जन्म की अस्मिता से उबरने की सैद्धांतिक  छूट भी नहीं देते. मैं कहाँ पैदा हुआ उसमे मेरा कोई हाथ नहीं है. पिछडों और दलितों ने मायावती और मुलायम के नेतृत्व में जमीं कब्जा नहीं शुरू हुशुरू किये और चला रहे हैं.आ, ये तो सामंतो से समझौता कर लिये. सारे जमीं आंदोलन क्रांतिकारी पार्टियों ने शुरू किया और चला रही हैं. विनोद मिश्र ने लिबरेसन को जातीय चेतना के तहत नहीं राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के तहत चुनावी पार्टी बनाकर सीपीयम के रास्ते पर डाल दिया तभी से उनकी पार्टी से मेरा कोई ताल्लुक नहीं रहा. मनुवाद का विरोध मनुवादी सीमाओं में रहकर नहीं किया जा सकता. मायावती/मुलायम /लालू के पास इतिहास बदलने और महान बनाने अवसर आये लेकिन मनुवादी भ्रष्ट नेताओं की ही तरह मनुवाद से समझौता करके निजी संचय की मूर्खता करते रहे क्योंकि पूंजीवाद में संचय सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है बाकी सब संचय के भ्रम में रहते हैं. मैंने २०११ में अप्रैल-जून की बलात्कार एवं ह्त्या और बलात्कार की अखबारी ख़बरों पर १७-१८ कवितायें लिखा "मैं एक लड़के हूँ अक्सर दलित".(www.ishmishra.blogspot.com  इस दौर में मायावाteeते "सुशासन" में २ दर्जन से अधिक ऐसी घटनाएँ हुईं और कई मामलों में बसपा के विधायक/मंत्री शामिल थे. १८५७ मन प्रमुख अंतर्विरोध औपनिवेशिक शासन और भारतीय जनता का था, इसी लिये यह किसान्विद्रोह क्रान्तिकार था. यदि आप १८५७ के किसान विद्रोह को क्रांतिकारी मानते हैं तो उन चंद रजवाडों को भी क्रांतिकारी मानना पडेगा   जो इस क्रांति में शरीक थे क्योंकि ज्यादातर तो अंग्रेजों के पिछलग्गू थे. आप को शायद मालुम न हो कुंवर सिंह की सेना में ज्यादातर पिछड़े और दलित थे जब कि उस समय दलित चेतना आज जैसी नहीं थी. और अंत में गुजारिश है कि भ्रष्ट को भ्रष्ट कहने वाले को सिर्फ इसलिए ब्राह्न्वादी होने की गाली देने कि वह दलित भ्रष्ट को भी भ्रष्ट कह रहा है.  भ्रष्टाचार का जन्तान्त्रीकरण जातिवाद और दलित समस्या का अंत नहीं कर सकता है. आख़िरी मार सबसे नीचे के तपकों पर पर पड़ती है.जातिवाद का अंत भी दलितों/मजदूरों/किसानों की क्रांतिकारी लामबंदी से ही होगी, पूंजी के दलालों की संरचना से नहीं. दलितों और गरीबों की समस्याएं इससे नहीं हल होंकि पूंजी की दलाली ब्राह्मण के बदले दलित/पिछडाब  करने क्लागे. समस्या का निदान सत्ता-परिवर्तन नहीं है, व्यवस्था बदलनी पड़ेगी.

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