रिचा बेटी, आपके उद्गारों और हमारी पीढी की विरासत की शिकायत की कद्र करते हुए फिलहाल इतना ही कहूँगा कि हर पीढी अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाती है और हर अगली पीढी तेजतर होती है. १९७० की दशक में एक संविधानेतर शक्ति के रूप में संजय गांधी के उदय के बाद राष्ट्रे राजनीति के लम्पटीकरण के साथ छात्र राजनीति का भी लम्पटीकरण हुआ. कहा जता है कि उसके पहले विचारधारा-आधारित राजनीति होती थी. जातीय समीकरण भी ज्यादा नहीं रहता था. खुद को ठीक करना सार्वजनिक पदों पर व्यवस्था के सरोकार से जुड़ा हुआ है. आपके पापा जी ने सही बताया कि देवी प्रसाद त्रिपाठी को ढक्कन गुरू ने प्रकाशनमंत्री के पद पर हराया था. वे तक छत्र-नेता के रूप में कम, 'वियोगी जी' कवी के रूप में ज्यादा जाने जाते थे. यह १९७१-७२ की बात है मेरे विश्वविद्यालय में दाखिले से एक साल पहले. पहली बार छात्र संघ के अध्यक्ष और महामंत्री पदों पर क्रमशः कांग्रेस समर्थित एन.एस.यु.आई. के अरुण कुमार सिंह मुना और और आर.एस.एस. की छात्र शाखा, विद्यार्थी पार्षद के ब्रजेश कुमार निर्वाचित हुए और लोग बत्यते थे कि पहली बार धन-बल और बाहुबल का खुल कर इस्तेमाल हुआ था. दोनों ही संगठनों के अपने अपने बहुबली थे. परिषद् के एक सम्मानित बाहुबली शिवेंद्र तिवारी १९७३-७४ में कभी गायब हो गए आज तक उनका पता नहें चला है. मैंने जब दाखिला लिया,१९७२-७३ में चुनाव नहें हुआ क्योंकि एक बयोवृद्ध छात्र नेता (समाजवादी युवजन सभा) जगदीश दीक्ल्षित का निष्कासन हो गया था और नारा था 'दीक्षित नहीं चुनाव नहीं'. १९७३-७४ में पार्षद के ब्रजेश कुमार अध्यक्ष हुए. वह साल काफी उथल-पुथल का साल था. जिस पर फिर कभी.
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