Sunday, October 14, 2012

लल्ला पुराण ४८

मै तो अज्ञानी हूँ इसलिए जो है ही नहीं पास उसे बांटूंगा क्या? मैन अपनी क्लास में बच्चों की सहभागिता प्रोत्साहत करने के लिये यह सत्य उद्घाटित कर देता हूँ कि यहाँ कोई भी ज्ञानी नहीं है, जो मन को ठीक लगे बोलो,आओ मिल कर खोजते हैं. गांधी जी सत्य की सहकारी खोज के पक्षधर थे. सत्य वही है जो प्रमाणित किया जा सके. कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता. ज्ञान की खोज एक सतत प्रल्रिया है. हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है क्योंकि वह पिछली पीहियों की उपलब्धियों को सहेजती है और आगे बढ़ती है. कुछ बातें ज्ञात हैं कुछ को जानना बाकी है. इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर नहीं होता. यह अपने को कभी दुहराता भी नहीं बस प्रतिध्वनित होता है.वे समाज जो इतिहास से सीखने ली बजाय इतिहास दुहराने की कोस्शिस करते हैं और सारे ज्ञान का श्रोत अतीत में खोजते हैं, जैसा कि धर्मावलम्बी करते हैं, वे समाज अधोगामी होते हैं और जड़ता के शिकार हो जाते हैं. पूर्व-आधुनिक काल में सारी महिलाओं और समाज के बहुसंख्यक मेहनतकशों को ज्ञानार्जन से  वंचित रखा गया इसी लिये यूरोप के उस काल को अंधायुग कहा जाता है. कमोबेश यही हालात सभी जगह थे. पूंजीवाद के विकास का एक आन्चाहा परिणाम यह है कि शिक्षा का अधिकार, सैद्धांतिक रूप से ही सही, सार्वभौमिक हो गया और शिक्षण संस्थाओं के मशीनीकरण और अवैज्ञानिक शिक्षा पद्धति के बावजूद, ज्ञान-अन्वेषण का अभियान तेजी से बढ़ रहा है. जिन औरतों और दलितों को कल तक सार्वजनिक जगहों पर प्रवेश का अधिकार नहीं था. वे आज भीड़ में घुस कर बुलंद आवाज़ में यथा स्थिति की जड़ता के विरुद्ध तर्क करते हैं. आइये ज्ञानार्जन के सामूहिक अभियान को गति प्रदान करें. संस्कृति की एक सार्वभौमिक प्रासंगिकता की सूक्ति है कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है और संचित करने से नष्ट होता है.

No comments:

Post a Comment