Shailendra Vikram Singh मित्र, मैं बिलकुल सहमत हूँ कि राम कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं हैं. लेकिन जैसा कि ऊपर एक कमेन्ट में कहा गया है कि हर समाज अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब अपने शब्दावल, रीति-रिवाज देवी-देवता और धर्म की रचना करता है. पहले ईश्वर गरीब और असहाय का भला करता था. अब God helps those who help themselves. धर्म से असहाय को राहत का बोध होता है. "जिसका कोई नहीं उसका खुदा है यारों" यह राहत का बोध एक भ्रम होता है. लेकिन यह भ्रम वाकई राहत देता है, क्षण भंगुर हे सही. इसी लिये हमारा मकसद धर्म-उन्मूलन नहीं है, उन परिस्थियों को समाप्त करना है जिनके चलते सुख के भ्रम की आवशयकता पड़ती है. मित्रों मेरा मक्साद आप मो उकसाना था, आप अपनी अडिग मान्यताओं के पक्ष में कुछ तर्क तो दे रहे हैं. आस्था से एक कदम आगे. राजधर्म और पत्नी धर्म पर मुझे लगता है एक स्वतंत्र बहस के आवश्यकता है.यहाँ कुछ बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ: १. जो राम के चरित्र को तार्किक, आलोचनात्मक दृष्टि से समझे जरूरी नहीं कि वह रावण का पक्षधर हो., उसी तरह जैसे जो बुश के साथ नहीं था जरूरी नहीं वह आतंकवाद का पक्षधर हो.
२. राम को यहाँ भगवान किसी ने नहीं कहा मर्यादा पुरुषोत्तम ही कहा जो वाल्मीकि की समझ है तुलसी उन्हें भगवान मानते हैं. जब राम भगवान नहीं हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम, सद्गुणों के वाहक मात्र हैं, तो उनके चरित्र पर अन्य कई रामायणों को छोड़ दें तो तुलसी दास के विवरण पर ही उन सद्गुणों पर खुली बहस से किसी की धार्मिक आस्था क्यों आहत होती है. इतनी राम कथाएं हैं कि एक ही को क्यों प्रामाणिक मान लिया जाय? दिल्ली विश्वविद्यालय में रामानुजम के३ रामायणों के लेख पर मचा बवाल बहुचर्चित है. विद्यार्थी परिषद के कुछ राम भक्तों ने इतहास विभाग में तोड़-फोड़ और एक प्रोफ़ेसर को धकिया कर और कइयों को गालियाँ देकर गालियाँ देकर आस्था आहत होने की बात विश्वविद्यालय प्रशासन में के संज्ञान में ले आये.हजारों स्क्षकों-छात्रों के विरोध के बावजूद कुपति ने उस निबंध को कोर्स से हटवा दया. २. राम जिन आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनकी आस्था और अनुकरण सामाजिक विकास की दृष्टि से अवैज्ञानिक और प्रतिगामी है. बचपन से ही रामलीला के साथ अच्छाई के प्रतीक हे हाथों बुराई के प्रतीक को जलाते आ रहे हैं बिना प्रश्न किये कि वे अच्छाइयां-बुराइयां हैं क्या? किसी की भावना आहत हुई हो तो क्षमा प्रार्थना के साथ. वैसे धार्मिक भावनाएं मोम के तरह होती हैं, कब आहत हो जाएँ, पता नहीं चलता. सभी धर्म अपने को सबसे अधिक सहिष्णु कहते हैं लेकिन छोटी सी बात पर भावनाएं आहत हो जाती हैं और खून-खराबे पर उतारू हो जाते हैं. कृपया आस्था से अलग तथ्यों-तर्कों पर व्याख्याओं के प्रति थोडा सहनशील बनें.
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