गायत्री मंत्र तो हमें अक्षरज्ञान होने तक कंठस्थ हो गया था और बाबा के साथ बैठक में सोता था और वे ब्राह्ममुहूर्त में ही उनसे रामचरित मानस के दोहे-चौपाइयां सुनते और प्राइमरी में पूरा मानस कई बार पढ़ गया टीका पहले पढ़ता और दोहा-चौपाई बाद में। बहुत दिनों तक महाभारत नहीं पढ़ा क्योंकि किंवदंति थी कि महाभारत पढ़ने से घर में झगड़ा होता है, लेकिन पढ़ने का शौक था और घर में यही सब ग्रंथ थे तो मिडिल स्कूल तक पहुंचते-पहुंचते पढ़ ही डाला। गीता भक्तिभाव से कई बार पढ़ा तथा मिडिल स्कूल पास होने तक गीता के कई श्लोक कंठस्थ हो गए थे, 2015-16 में जब सरकार ने इतिहास के पुर्मिथकीकरण का कार्यक्रम शुरू किया तो उस पर लिखने के लिए आलोचक भाव से पढ़ा। छठीं क्लास (1964-65) में 10 साल से कम उम्र में जनेऊ हो गया जो घुटने के नीचे तक लटकने के चलते अटपटा लगता लेकिन एक अनुशासित कर्मकांडी ब्राह्मण बालक की तरह धार्मिक निष्ठा से सुबह उठते ही "कराग्रे बसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती, करमूले तु गोविंदः, प्रभाते कर दर्शनम्" मंत्र के साथ हथेलियां देखकर दिन की शुरुआत कर दैनिक कर्मकांडो का पालन करता था। मुझे किसी ने बताया नहीं था कि किसी भी ज्ञान की कुंजी सवाल-दर सवाल है, जैसा कि मैं अपने छात्रों को बताता था (Key to any knowledge is questioning, question anything and everything beginning from your own mindset), लेकिन बचपन से ही हर बात पर सवाल करने की आदत थी जिसके चलते छुआछूत से शुरूकर धीरे-धीरे मंत्र-तंत्र तथा कर्मकांडी रवायतों से मोहभंग होने लगा। 13 साल की उम्र तक भूत का भय खत्म हो गया तथा चुटिया ओऔर जनेऊ अनावश्यक लगने लगे और दोनों से छुटकारा पा लिया और उसी उम्र में एक सीनियर खो-कबड्डी खेलने के बहाने शाखा में ले गए और कुछ दिन बाल स्वयंसेवक रहा। संघ के प्रचारकों और अधिकारियों का बालप्रेम देख लगा कि यह भी राष्ट्रप्रेम का हिस्सा होगा। 17 साल की उम्र में इलाहाबाद विवि में दाखिला लेने तक ब्राह्मणीय श्रेष्ठता यानि जातिवाद से मोहभंग हो गया था और हर बात पर सवाल करने की आदत से भगवान के भय से नास्तिक हो गया। विशिष्ट परिस्थिति जन्य कारणों से (जिसका विस्तृत वर्णन फिर कभी) विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया यानि मैं धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है। विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के लगभग नीचे पीपीएच की दुकान थी वहां किताबें पढ़कर और युवा मंच के सीनियरों (रवींद्र उपाध्याय, विभूति ना. राय, डीपी त्रिपाठी आदि) से विमर्श-बहस के चलते मार्क्सवाद की तरफ झुकाव हुआ। 2-4-8 आने में खरीदकर कमरे में काफी मार्क्सवादी साहित्य हो गया। 1974-75 में विद्यार्थी परिषद छोड़ने के बाद कुछ वामपंथी छात्र संगठनों में रहा-छोड़ा। 31-32 सालों से बेदल मार्क्सवादी, रोमिला थापर के शब्दों में दार्शनिक (Philosophical) कम्युनिस्ट हूं। अभी संक्षेप में इतना ही, बाकी बाद में। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है तथा बदली चेतना बदली परिस्थितियों का, लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलतीं, मनुष्य के चैतन्य प्रयास से। परिस्थितियां बदलती रहीं और चेतना यानि सोच भी।