सही कह रहे हैं, कोई भी पूंजीवादी देश अपने हर नागरिक को काम का अधिकार नहीं दे सकता जो सोवियत संघ में सबको उपलब्ध थी। बेरोजगारी (कार्यबल की आरक्षित फौज) पूंजीवाद की अंतर्निहित प्रवृत्ति है। यह भी सही है कि स्टालिन काल में में केंद्रीय नियोजन तथा राज्य नियंत्रण में औद्योगिक विकास तेजी से हुआ, जो स्टालिन के बाद 1980 तक जारी रहा, जिसने सोवियत म़डल को वैधता प्रदान की। दूसरी सकारात्मक बात सोवियत संघ द्वारा दुनिया के पाठकों को लगभग लमुफ्त में पुस्तकें प्रदान करना रहा, केवल वैचारिक पुस्तकें ही नहीं। इलाहाबाद विवि में पढ़ते हुए मैंने फीजिक्स और गणित की सोवियत प्रकाशन की कुछ पुस्तकें लगभग मुफ्त में खरीदी थी। लेकिन इसी दौरान उपभोक्ता सामग्रियों के निजी इस्तोमाल के बढ़ावे से समाज में असमानता तथा अराजनैतिककरण में भी उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई, इसमें सुविधासंपन्न वर्गों के लिए कार उत्पादन की अहम भूमिका थी। निजी वाहनों वाले लोगों को गैरेज आदि जैसी सुविधाएं भी चाहिए थीं। निजी वाहनों से चलने वाले लोगों ने अलग जीवनशैली विकसित करना शुरू किया तथा नई जरूरतें।दीर्घकालीन निजी उपभोग की वस्तुओं और पूरक सुविधाओं के उत्पादन में पर्याप्त मानव और भौतिक संसाधन खर्च हुआ जिसका अर्थव्यवस्था तथा समाज के अन्य क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। यदि कोई समाज निजी उपभोग को तरजीह देता है तो आम जनजीवन के जीवन स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव लाजमी है। संक्षेप में कहें तो सोवियत संघ सुविधा संपन्न राजनैतिक वर्ग के विशिष्ट निजी उपभोग के उत्पादन के जिस रास्ते पर चला उससे समाज में असमानता में बढ़ोत्तरी स्वाभाविक थी। 1980 के बाद बढ़ती असमानता, और बढ़ते अराजनैचतिककरण और उत्पादन में संतृप्ति (सेचुरेसन) के चलते जन-असंतोष बढ़ना शुरू हुआ जिसे शांत करने के लिए, 1980 का दशक खत्म होते होते गोर्बाचेव ने ग्लासनोस्त-प्रेस्त्रोइका (पूंजीवादी पुनर्स्थापना) की राह पकड़ा और 1990 का दशक शुरू होते ही सोवियत संघ का विघटन तथा बीसवीं शताब्दी के समाजवादी प्रयोग के अंत की शुरुआत हुई। क्रांति और प्रतिक्रांति के दौर साम्यवाद की स्थापना तक चलते रहेंगे।
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