इतिहास हम जैसे बना वही पढ़ते और उसी से सीखते हैं। कोई भी परिघटना की बहुत से क्रमचय-संचय (permutation-combination) में घटने की संभावनाएं हो सकती थीं। गोर्बाचेव के समय तक सोवियत संकट का हल सोवियत ढांचे में संभव नहीं था तथा वह प्रतिक्रांति का मोहरा बना। मेरा मानना है (इस पर लिखना बहुत दिनों से टल रहा है) कि यदि पार्टी में आंतरिक जनतंत्र बना रहता, एक सुविधासंपन्न राजनैतिक तपका (पार्टी नौकरशाही) विशिष्ट शासक समूह के रूप में न उभरता और समाज का अराजनैतिककरण न होता तथा सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए सांस्कृतिक क्रांति हुई होती, तो सोवियत संघ एवं सोवियत ब्लॉक अभी बरकरार होते। औद्योगिक विकास और दीर्घकालीन स्थायित्व को उपभोक्ता उत्पादन से जीवन स्तर में सुधार तो आया किंतु समान रूप से नहीं, संपन्नता बढ़ी साथ-साथ असमानता तथा अलगाव (एलीनेसन) भी।सोवियत संघ में समाजवादी चेतना के लिए राजनैतिक शिक्षा को तरजीह दी गयी होती तो वह भविष्य की क्रांति उपरांत समाजों का मिशाल बनता। लेकिन इतिहास या अतीत नहीं सुधारा जा सकता वर्तमान में उससे भविष्य के लिए सीख ली जा सकती है।
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