राजीव सरकार की शाहबानो प्रकरण की नैतिक तथा राजनैतिक मूर्नेखतापूर्ण भयंकर गलती ने भाजपा को सांप्रदायिक उंमाद फैलाने का एक और मुद्दा दे दिया, लेकिन राम मंदिर को मुद्दा बनाने का फैसला संघ परिवार ने 1984 के सिख नरसंहार के बाद कांग्रेस को मिले प्रचंड बहुमत के चलते लिया। जनता पार्टी के कांग्रेस-विरोधी प्रयोग की असफलता के बाद संघ परिवार रक्षात्मक सांप्रदायिक मोड में था तथा जनसंघ को भाजपा के रूप में पुनर्गठित करते समय हिंदुत्व की बजाय अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद को अपना वैचारिक सिद्धांत घोषित किया। 1984 के बाद उसे लगा कि दशकों से सांप्रदायिक विषवमन वह कर रहा है और 200 सिख मरवाकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का चुनावी फायदा कांग्रेस ने उठा लिया। तब इन्होंने राममंदिर के नाम पर सांप्रदायिक उंमाद फैलाने करा फैसला किया और देशभर की दीनारों पर गर्व से हिंदू के नारे दिखने लगे। शाीहबानो प्रकरण ने आग में घी का काम किया। संघ परिवार के उंमादी अभियान के जवाब में चिदंबरम् जैसे कॉरपोरेटी सलाहकारों के प्रभाव में राजीव गांधी ने मस्जिद का मताला खुलवाकर तथा राम चबूतरे के लिए जमीन का अधिग्रहण कर भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक अभियान की एक और भयानक मूर्खता की। मस्जिद का ताला खोलने के विरोध के दमन में मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा के सांप्रदायिक हिंसा को अंजाम दिया। दुश्मन के मैदान में उसी के हथियार से उससे लड़ने में हार निश्चित होती है। राजीव गाींधी नकी इन राजनैतिक मूर्खताओं ने कांग्रेस को हाशिए पर ढकेलने के साथ देश को सांप्रदायिक सियाीसत की आग के हवाले कर दिय़ा।
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