Markandey Pandey वैसे तो मैं चुंगी से अनिश्चितकालीन लंबे अवकाश पर हूं तथा मेरी अनुपस्थिति में यहां व्याप्त शांति देख अवकाश से जल्दी वापसी की कोई मंशा नहीं है। आपने टेग कर दिया तो सवाल न टालने की शिक्षकीय सोच से मजबूरन अवकाश से अवकाश लेना पड़ा।
1. पहली बात तो कुज्ञान का परिचय देते हुए, संदिग्ध मंसूबे से गाया जाने वाला धर्म की अफीम का रटा-रटाया भजन, 1842 में हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा के मार्क्स के एक लेख के एक वाक्य के छोटे अंश का विभ्रंश रूप है। लेख न पढ़े तो पूरा वाक्य तो पढ़ लें, जिसे मैं कई बार शेयर कर चुका हूं। नीचे कमेंट बॉक्स में दुबारा अपने एक लेख का लिंक शेयर करता हूं। धर्म लोगों की अफीम होने के पहले पीड़ित की आह तथा निराश की आशा भी है। जिसका कोई नहीं, उसका खुदा है यारों। भारत ही नहीं दुनिया के लगभग सभी समाज पितृसत्तात्मक ही रहे हैं। 2. पितृसत्तात्मकता (मर्दवाद) धार्मिक नहीं सास्कृतिक विचारधारा जिसकी दैवीय पुष्टि के लिए धर्म का इस्तेमाल किया जाता रहा है। विचारधारा वर्चस्वशील और अधीनस्थ दोनों को प्रभावित करती है। लड़की को हम ही नहीं बेटी कह कर हम ही नहीं साबाशी देते हैं, वह भी उसे साबाशी के ही रूप में लेती है। लड़का बेटी के संबोधन का बुरा मान जाता है। गार्गी, मैत्रेयी, इंदिरा गांधी, फूलनदेवी स्त्रीमुक्ति समाज की नहीं, मर्दवादी समाज में शक्ति की दावेदारी कि अपवादस्वरूप चंद मिशालें हैं। शकुंतला और सीता स्त्रीवाद की नहीं मर्दवादी विचारधारा की पुष्टि के आदर्श हैं। शकुंतला की प्रमुख चिंता पति द्वारा अस्वीकृति की है तो सीता की एक मर्द द्वारा अपहरण से जनित अपवित्रता के कलंक को अग्निपरीक्षा से धोने की, जो तब भी नहीं धुलती और उसी बहाने गर्भवतीकर उनका राजा पति उन्हें देश निकाला दे देता है। पुरुष यदि स्त्री को भोग की वस्तु समझना बंद कर दे तो उसकी सुरक्षा की समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। 3. जहां तक स्त्रियों के स्त्री विरोधी होने की बात है तो मैंने पहले ही कहा कि मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि सांस्कृतिक विचारधारा है जिसके मूल्यों को पुरुष ही नहीं स्त्री भी अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेती है। बेटे या दहेज का चाह पिता की ही नहीं, माता की भी होती है। पितृसत्तात्मक (मर्दवादी) होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं है, उसी तरह जैसे स्त्रीवादी होने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है। 1987 में मैंने सांप्रदायिक विचारधारा और स्त्री के सवाल पर एक शोध पत्र लिखा। ज्यादातर खत (ईमेल का जमाना नहीं था) Dear Ms Mishra से शुरू होते थे। जवाब में मैं लिखता, coincidently I am a man. 4. चरकला चलाने वाली भी स्त्रियां भी मजबूरन मर्दवादी हैं क्योंकि पुरुष की विकृत यौन-लिप्सा के चलते रोटी का दाम चुकाने के लिए देहव्यापार मर्दवादी बाजार का हिस्सा है। 5.फिर कभी इस पोस्ट की प्रतिक्रिया लंबे लेख में दूंगा, अभी यह कमेंट इस बात से खत्म करूंगा कि मैं अपनी बेटियों और छात्राओं को कहता था कि हमसे 1-2 पीढ़ी बाद पैदा होना उनका सौभाग्य है क्योंकि 1950 के दशक से शुरू स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ अभी तक काफी आगे निकल चुका है और स्त्रियां हर क्षेत्र में उल्लेखनीय भागीदारी दर्ज कर रही हैं। नोट: धर्म की अफीम वाला उद्धरण नीचे के लिंक में देखें।
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किसी ने सीता, शकुंतला, इंदिरा गांधी,फूलन देवी जैसे उदाहरण से लिखा कि भारत में स्त्रियों को पर्याप्त अधिकार रहे हैं और स्त्रियों को अधिक आजादी देने से उनकी असुरक्षा बढ़ती है तथा चकला के दृष्टांत से कहा पुरुष ही नहीं स्त्रियां भी मर्दवादी होती हैं। किसी ने चुटकी लेने के अंदाज में मुझे टैग कर इसे धर्म की अफीम का असर बताया, उस पर --
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