एक मित्र ने पति-पत्नी द्वारा एक दूसरे के प्रति प्यार और समर्पण की निरंतर सार्वजनिक उद्घोषणा का निहितार्थ पूछा, उस पर:
इसका एक निहतार्थ तो वही है जो स्कूलों में नित्य-प्रति की प्रार्थना का है, एक ही बात रोज रोज दुहराते रहिए तो उसका मन पर कुछ-न-कुछ असर पड़ना स्वाभाविक है। बच्चा अपने चिंतनशील जीवन के प्रथम सोपान (स्कूल जीवन) में हर दिन की शुरुआत, दीन-हीन बन कर किसी ईश्वर से सद्बुद्धि आदि मांगने से करे तो धीरे धीरे उसके मन में बैठता जाता है कि सारी भौतिक-बौद्धिक संपदाओं के श्रोत के रूप में ईश्वर नाम की कोई अलौकिक शक्ति है जिसके सामने नतमस्तक होना चाहिए। यूरोपीय नवजागरण कालीन राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली कहता है कि धर्मपरायणता से आस्थावान के दिल में धीरे-धीरे ईश्वर का भय, राजा के भय का रूप ले लेता है। यानि खुदा के समक्ष नतमस्तकता नाखुदाओं के समक्ष नतमस्तकता में बदल जाती है तथा नतमस्तकता समाज की प्रमुख प्रवृत्ति बन जाती है। और नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने के शौक की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। मेरे जैसे लोग भारी कीमत चुकाकर इसी तरह के मंहगे शौक पालते रहे हैं।
इसका दूसरा निहितार्थ एक दूसरे को पारस्परिक भरोसे के प्रति आश्वस्त करते रहना है।
वैसे समर्पण की भावना स्वतंत्रता की भावना के विपरीत है वह चाहे पारस्परिक समर्पण ही क्यों न हो। एक दूसरे के दो गुलामों में स्वतंत्र प्रेम की संभावना क्षीण होती है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से एक संस्था के रूप में विवाह की उत्पत्ति स्त्री-पुरुषों की सेक्सुअल्टी को नियंत्रित एवं संस्थागत रूप प्रदान करने की सामाजिक संविदा से होती है, सामाजिक-आर्थिक-भावनात्मक जरूरतों की पारस्परिक आपूर्ति इसके तार्किक उपपरिणाम हैं।
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