पकौड़े तलने का ही नहीं श्रम की अवमानना सभ्यता के दर्शन में अंतर्निहित है। मुख्यधारा के पाश्चात्य दार्शनिकों में रूसो पहले हैं जिन्होंने श्रमिक को इंसान माना और मार्क्स ने श्रम को जीवन की आत्मा। वर्णाश्रम व्यवस्था में श्रमिक को अछूत माना तथा उनके श्रम के उत्पाद का सेवन करने वाले परजीवियों को श्रेष्ठ। लेकिन बाकी रोजगार राष्ट्रवाद को समर्पित कर मोदी जी सभी को पकौड़े बेचकर रोजाना 200 की आमदनी से परिवार पालने की नशीहत तो दे रहे हैं लेकिन सब पकौड़े ही बेचेंगे तो खरीदेगा कौन?
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