दलित सामूहिकता पर शासक वर्ग का सामूहिक हमला
ईश मिश्र
पिरामिडाकार श्रेणीबद्धता के अर्थों में पूंजीवाद और हिंदू-जाति व्यवस्था में इतनी समानता है कि जातिवाद(ब्राह्मणवाद) और पूंजीवाद चाहे-अनचाहे; जाने-अनजाने एक दूसरे के सहयोगी बन जाते हैं। इसका ताजा, ज्वलंत उदाहरण पंजाब के मालवा क्षेत्र के दलित किसानों की जमीन के कानूनी अधिकारों की जारी लड़ाई का सामूहिक दमन है। जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (जेडपीयससी) के नेतृत्वमें इस आंदोलन की कुछ मोर्चों पर तत्कालिक विजय के बाद मिली जमीनों में साझी खेती के प्रयोग से दलित सामूहिकता की एक अनुकरणीय मिशाल कायम की है। यह आंदोलन सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय या यूं कहें कि सामाजिक और आर्थिक क्रांतियों यानि वर्ण-संघर्ष और वर्ग-संगर्ष की द्वंद्वात्मक एकता की एक मिशाल है। आंदोलन के बारे जनहस्क्षेप की रिपोर्ट (जून, 20016) में विस्तृत जानकारी है। मैंने कई हिंदी-अंग्रेजी के प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशनों में कई लेख लिखे थे। अभी संगरूर में उनके एक सेमिनार से लौटा हूं, अद्भुत सेमिनार था जहां न कोई ताम-झाम था न कोई विद्वान न शोधार्थी। वक्ता और श्रोता दोनों आंदोलन से जुड़े किसान और उनके नेता थे। महिलाओं की संख्या ज्यादा थी, आंदोलन में भी भागीदारी और मर्द पुलिस दल की बर्बरता झेलने में भी महिलाएं आगे हैं। मुझे आंदोलन के लोग बुलाते हैं तो बहुत सम्मान महसूस होता है, मैंने उनसे कहा भी। सेमिनार का संचालन दलित सामूहिता की सबसे मजबूत कड़ी और शासकवर्गों की आंखो की सबसे बड़ी किरकिरी, बाल्द कलां गांव की लड़की परमजीत कर रही थी, उसकी नेतृत्व क्षमता और वैचारिक परिपक्वता काबिले तारीफ है। ज्यादा बात नहीं हो पायी, उसे एक और सेमिनार में जाना था। उसके बारेनमें लेख में। इन्ही बच्चों में उम्मीदों की कुछ चिनगारियां दिखती हैं जो बनेंगी ही ज्वाला मिल एक-दूजे से एक दिन और फिर दावानल। रिपोर्टनुमा लेख कल लिखूंगा। सुबह-शाम मिलाकर 8 घंटे की रेल यात्राओं और 5 घंटे के सेमिनार तथा संगरूर में बाकी बचे समय में आंदोलन के कुछ युवा नेताओं के साथ चाय की अड्डेबाजी के बाद आंखों में थकान लग रही है। इस आंदोलन की एक और खास बात हमने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया है, उस आंदोलन की शुरुआत क्षात्रों ने की तथा नेतृत्व में बहुमत युवा लड़के-ल़कियों का है।
08.01.2017
1:18 (अर्धरात्रि)
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