Monday, January 29, 2018

सीपीयम में घमासान

सीपीयम में घमासान
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और फूट: ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य
ईश मिश्र
भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और अवश्यंभावी विघटन की आहट देते हुए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सीपीयम] में लंबे समय से चल रही गुटबाजी, 3 दिन चली केंद्रीय कमेटी की मीटिंग में मत-विभाजन में जगजाहिर हो गयी। बैठक में दोनों – करात समर्थक और येचूरी समर्थक – गुटों के बीच आरोप-प्रत्यारोप किसी वैचारिक टकराव या नवउदारवादी पूंजी के गतिविज्ञान के नियमों की व्याख्या में मतभेद का नहीं, वैचारिक दिवालिएपन का परिचायक है। दोनों ही गुटों में शक्ति-प्रदर्शन का मुद्दा बना भाजपा के विरुद्ध 2019 के चुनाव में कांग्रेस के साथ व्यापक फासीवादी मोर्चा। गौरतलब है कि 1990 के दशक में कांग्रेस के समर्थन से ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के प्रस्ताव को बहुमत से खारिज करवाने में सीताराम येचुरी और प्रकाश करात साथ थे। प्रकाश करात के ही नेतृत्व में सिंगूर और नंदीग्राम जैसे अधोगामी फैसलों ने न महज संसदीय वामपंथ को रसातल में पहुंचा दिया बल्कि शासकवर्ग के भोपुओं को वामपंथ-विरोधी प्रोपगंडा का मुद्दा भी थमा दिया। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में फूट की प्रक्रिया की शुरुआत 1920 में ताशकंत में यमयन रॉय और अबनी मुखर्जी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के समय ही शुरू हो गयी थी[1]। शीघ्र ही रॉय और मुखर्जी के मतभेद कटुता में बदल गए। कॉमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में औपनिवेशिक सवाल पर राष्टीय आंदोलन के साश असहयोग की रॉय की थेसिस के विपरीत सहयोग की लेनिन की थेसिस स्वीकार हुई थी।
औपनिकशिक सवाल पर रॉय-लेनिन की बहस में जाने की गुंजाइश नहीं है, वह अलग चर्चा का विषय है[2]। मुद्दा वही था- कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन से सहयोग- असहयोग का। 1905-07 की रूसी क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद लेनिन ने लिखा था कि क्रांतिकारी परिस्थिति क्रांति की आवश्यक शर्त है। तत्कालीन औपनिवेशिक परिस्थिति में उपनिवेशों में साम्राज्य-विरोधी आंदोलनों के चरित्र को लेनिन प्रगतिशील मानते थे। उनकी थेसिस के अनुसार, उपनिवेशों में कम्युनिस्ट पार्टियों को अपनी अस्मिता बरकरार रखते हुए आंदोलन में शिरकत करना चाहिए तथा आंदोलन के क्रांतिकारी तत्वों को अपने साथ लाने की कोशिस। साम्राज्यवादी पूंजी की किसी भी कड़ी पर प्रहार पूंजीवाद को क्षतिग्रस्त करेगा। इसके उलट रॉय आंदोलन की तुलना जर्मनी तथा पूर्वी यूरोप में देर से हुए पूंजीवाद के विकास से करते हैं जहां बुर्जुआ जनतांत्रिक आंदोलन ने सामंतवाद के विरुद्ध संघर्ष को तार्किक परिणति तक ले जाने की बजाय मजदूर वर्ग को काबू में रखने के मकसद से उससे समझौता कर लिया था। उनका मानना था कि कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहा राष्ट्रीय आंदोलन अंततः साम्राज्यवाद से समझौता कर लेगा। उनकी राय में सर्वहारा अपने बल पर दोनों क्रांतियां – राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन और सामाजवादी – संपन्न करेगा। रॉय का परिस्थिति का आकलन इस अर्थ में फैंसी लगता है कि आर्थिक (संख्या) तथा राजनैतिक (वर्गचेतना से लैस संगठन) रूप से सर्वहारा की मौजूदगी नगण्य थी। गौरतलब है कि 1947 में जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए तो देश की अर्थव्यवस्था में औद्योगिक योगदान दो अंकों से कम फीसदी था तो 1920 की स्थिति सोची जा सकती है। कॉमिंटर्न के निर्देशानुसार पार्टी ‘वर्कर्स एंड पीजेंट पार्टी (डब्ल्यूपीपी)’ नाम से जनसंगठन के जरिए आंदोलन में शिरकत से जनपक्षीय पहचान अर्जित कर रही थी कि 1928 में कॉमिंटर्न की छठी कांग्रेस में औपनिवेशिक मुद्दे पर राय बदल दी। यमयन रॉय को कॉमिंटर्न से निष्कासित कर दिया गया और राष्ट्रीय आंदोलन से असहयोग की उनकी थेसिस लागू कर दी गयी। रॉय के निष्कासन के बाद पार्टी के नेतृत्व में शक्ति अर्जित करने के शुरुआती दौर में ही दोफाड़ गया। कम्युनिष्ट आंदोलन में फूट के इतिहास की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, मकसद महज यह इंगित करना है कि कम्युनिस्ट आंदोलन में दो लाइनों तथा उस आधार पर गुटबाजी की प्रक्रिया शुरुआती दौर से ही जारी है। आज हालत यह है कि मार्क्स के दुनिया के मजदूरों की एकता का नारा भारत के कम्युनिस्टों के संदर्भ में कम्युनिस्टों की एकता के असंभव से दिखते नारे में सिमटकर रह गया है।
कम्युनिस्ट पार्टी अन्य पार्टियों से इस अर्थ में भिन्न होती है कि यह सिद्धांत पर ज्यादा जोर देती है और उसी के अनुसार अपनी नीति-रणनीति निर्धारित करती है। कॉमिंटर्न के तत्वाधान में गठित दुनिया की सभी कम्युनस्ट पार्टियों का सैद्धांतिक श्रोत मार्क्सवाद है। मार्क्सवाद क्रमिक और क्रांतिकारी आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या का विज्ञान है  तथा शोषणकारी व्यवस्था के बदलाव की विचारधारा। मार्क्सवाद करनी-कथनी के अंतर्विरोध उसी तरह पूंजीवाद का अभिन्न अंग मानता है जैसे वैतनिक गुलामी को और दोनों का अंत सर्वहारा क्रांति का मकसद। कथनी-करनी यानि सिद्धांत-व्यवहार का अंतर्विरोध वर्ग समाजों का अंतर्निहित अंग है। ये जो कहते हैं करते नहीं और करते हैं, कहते नहीं। वर्ग समाजों के जैविक और पेशेवर बुद्धिजीवी शब्दाडंबरों से हकीकत पर पर्दा डालते हैं। जितना कहते हैं, उससे अधिक छिपाते हैं। रूसो इसकी प्रतिक्रिया में यह कहकर  सभ्यता को ही खारिज करते हैं कि यह दोगलेपन का संचार करती है। मार्क्स इनके लेखन से धुंध (समोक स्क्रीन) हटाकर पढ़ने की सलाह दी है, स्वरूप की तह में जाकर हकीकत समझने की। आत्मालोचना के सिद्धांत की ही तरह प्रैक्सिस का सिद्धांत, यानि करनी और कथनी की द्वंद्वात्मक एकता का सिद्धांत भी मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है। मार्क्सवाद समाज के गतिविज्ञान के नियमों के समझने का गतिमान विज्ञान है, जो समाज की भौतिक उत्पादन पद्धति पर आधारित आर्थिक संरचना और उनमें बदलाव को इतिहास की गाड़ी की धुरी है तथा समाज की बुनियादी संरचना, जो ऐतिहासिक; राजनैतिक; वैधानिक तथा बौद्धिक संरचनाओं का निर्णायक तत्व है। मार्क्सवाद, उदारवाद (पूंजीवाद) की वैकल्पिक विचारधारा और इसकी परिकल्पना का वर्गविहीन साम्यवादी समाज, पूंजीवादी आर्थिक-सामाजिक व्वस्था का कम्युनिस्ट पार्टी अन्य पार्टियों से इस अर्थ में भिन्न होती है कि यह विच सिद्धांतों पर जोर देती है। इसके अस्तित्व का स्वघोषित मार्क्सवाद है, जो दुनिया की वैज्ञानिक समझ का विज्ञान और बदलने की विचारधारा है। यहां स्थापना के बाद से ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की मार्क्सवाद की व्याख्या और अमल तथा कॉमिंटर्न और सोवियत पार्टी के प्रभाव पर चर्चा की गुंजाइश नहीं है। सीपीआई ने मार्क्सवाद को खास ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझने के विज्ञान की जगह मिशाल मान लिया। यूरोप में नवजागरण एवं प्रबोधन काल में सामाजिक विभाजन का जन्म का मानदंड खत्म हो चुका था। सामाजिक विभाजन का प्रमुख आधार आर्थिक था इसीलिए मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा कि पूंजीवाद ने समाज को पूंजीपति और सर्वहारा के परस्पर विरोधी खेमों में बांटकर वर्ग-विभाजन को आसान बना दिया। भारत में ऐसी कोई प्रबोधन क्रांति हुई नहीं और जाति आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था जस-की-तस कायम थी। इस क्रांति की जिम्मेदारी भी कम्युनस्टों की ही थी। यद्यपि जातीय उत्पीड़न समेत सभी उत्पीड़नों के विरुद्ध मुखरता से सक्रिय वामपंथी ही रहे हैं, लेकिन जाति-उन्मूलन यानि सामाजिक क्रांति का मुद्दा अलग एजेंडा न बन सका, जिससे पहचान की राजनीति के माध्यम से एक नवब्राह्मणवादी तपका पैदा हो गया जो सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में उतना ही बड़ा गतिरोध है जितना सांप्रदायिक ब्राह्मणवाद।
1934-42 के दौर में अवैध पार्टी के ज्यादातर सदस्य जेल में थे, जो बाहर थे वे “मार्क्सवाद के प्रभाव मे आए” कांग्रेसियों द्वारा गठित कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में सक्रिय थे तथा इस दौर में टेड यूनियनों तथा किसान और छात्र संगठनों के बीच अच्छी पैठ बनाने में सफल रहे। इस दौर की और युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म से युद्ध-समर्थन प्लेटफॉर्म की चर्चा की गुंजाइश नहीं है। आजादी की लड़ाई के दौरान से जारी निजाम शासन के विरुद्ध किसानों की सशस्त्र क्रांति के आजाद भारत की नेहरू-पटेल की सरकार द्वारा निर्मम दमन के बाद से ही पार्टी में वाम-दक्षिण लाइन की लड़ाई जारी रही। 1950 में पार्टी की क्द्रीय कमेटी द्वारा जारी ‘तेलंगाना दस्तावेज’[3] का अध्ययन करने से पता लगता है कि एक लाइन बलिदान देते हुए आंदोलन जारी रखने के पक्ष में थी दूसरी शासक वर्गों की दमनकारी ताकत को देखते हुए कूटनीतिक विराम की। दो लाइनों के संघर्ष के विश्लेषण में जाने की गुंजाइश भी यहां नहीं है, वह एक अलग चर्चा का विषय है। चुनाव और ‘प्रगतिशील’ नेहरू सरकार के साथ सहयोग-विरोध तथा संसदीय चुनावों में भागीदारी पर भी लाइनों का संघर्ष चलता रहा। इस बीच कुमारमंगलम थेसिस के तहत तीसरी लाइन उभरी ‘व्यवस्था के अंदर से व्यवस्थाबदलने’। इसके तहत बहुत से सदस्य सीपीआई से निकल कर कांग्रेस में शामिल हो गये, वे व्यवस्था तो नहीं बदल सके, व्यवस्था में अनुकूलित हो गए। संसद में भागीदारी की नीति इस तर्क के तहत स्वीकार की गयी कि संसदीय मंच का इस्तेमाल क्रांतिकारी विचारों के प्रचार प्रसार के माध्यम के रूप में किया जाएगा। लेकिन माध्य ही मकसद बन गया और वर्ग संघर्ष तथा क्रांति दस्तावेजों में कैद शगूफे। जाति-धर्म आदि के चुनावी समीकरण-असमीकरण की राजनीति पर बुर्जुआ चुनावी पार्टियों का एकाधिकार नहीं रहा। कथनी-करनी के अंतर्विरोध अन्य संसदीय पार्टियों की तरह सीपीआई में भी व्याप्त गया। कार्ल मार्क्स ने हेगेल की सिर के बल खड़ी हकीकत के सिद्धांत पलटकर सीधा कर दिया था, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्स को उल्टा टांग दिया।
पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की गुटबाजी और लाइनों के टकराव से अनभिज्ञ पार्टी काडर और स्थानीय इकाइयां जनांदोलनों तथा भूमि आंदोलनों के जरिए जनमत और जनाधार तैयार करने में जुटे रहे। नतीजतन 1957 के चुनाव में कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर थी यानि प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी। केरल विधानसभा में बहुमत हासिल कर पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार की मिशाल स्थापित की और समाजवाद के संसदीय रास्ते के पैरोकारों को विचारधारात्मक तर्क प्रदान किया। 1962 में आंतरिक अंतःकलह के बावजूद सीपीआई मुख्य विपक्ष थी। 1964 तक लाइनों का विवाद और गुटबाजी का विकास अपने चरम पर पहुंच गया। ‘क्रांतिकारी’ गुट चीनी क्रांति-पथ की हिमायत के साथ संसदीय भटकाव वाले ‘संशोधनवादी’ गुट से अलग होकर नई पार्टी बनाया – भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [माकपा]।[4] तीन साल में ही नई ‘क्रांतिकारी पार्टी’ संशोधनवाद में सीपीआई की प्रतिद्वंद्वी बन गयी। जहां सीपीआई ने उ.प्र. समेत कई राज्यों में भारतीय जनसंघ के साथ संविद सरकारों में शिरकत की तो सीपीयम ने बांगला-कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में। 1967 में नक्सलबाड़ी स्वस्फूर्त क्रांति के निर्मम सरकारी दमन के समय ज्योति बसु पश्चिम बंगाल के गृहमंत्री थे। सीपीयम के चारु मजूमदार, जंगल संथाल, कणु सान्याल जैसे कई स्थानीय नेताओं ने सीपीयम से अलग होकर नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान को नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह पार्टी में पहली फूट तीन साल के भीतर दूसरी फूट। श्रीकाकुलम् और मुसहरी किसान विद्रोह को नक्लबाड़ी की कड़ियों के रूप में देखा जाता है। नक्सलबाड़ी ने राजनीति में विमर्श का एजेंड़ा ही बदल दिया। नक्सलबाड़ी शब्द के साथ तमाम मिथ और किंवदंदियां जुड़ गईं। देश भर में नक्सलबाड़ी क्रांति के समर्थकों के समूह बनने लगे।1968 में समन्वय के लिए आल इंडिया कमेटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवल्यूसनरीज (एआईसीसीसीआऱ) का गठन किया गया जिसे चारु मजूमदार की अध्यक्षता में 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लानिनवादी)[सीपीआई (माले) बनी जो गठन के तीन साल में ही विघटित होना शुरू हो गयी और अब तक नक्सलबाड़ी विरासत के दर्जन से अधिक छोटे बड़े दावेदार हैं। मातृ पार्टी का दावा करने वाली सीपीआई माले भी 1987 में संशोधनवाद का रास्ता अपना लिया। माले समूहों के एकीकरण और विघटन की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, इतना जरूर है कि 1964 में सीपीआई की संसदीय उपस्थिति की तुलना में तीनों संसदीय पार्टियों की सम्मिलित संसदीय मौजूदगी दशमांश भी नहीं है।
1977 में इंदिरा फासीवाद के विरुद्ध सीपीयम जनता पार्टी का समर्थन किया और पश्चिम बंगाल केरल में सत्ता में आए। पश्चिम बंगाल में सीपीयम के नेतृत्व में भूमि सुधार से गांवों में जनाधार बढ़ा और वर्ग संघर्ष का शगूफा छोड़ते हुए सीपीयम पूर्ण रूपेण संसदीय पार्टी बन गयी और सत्ता की होड़ में गुटबाजी भी। 2007 तक आते आते सीपीयम और अन्य संसदीय पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया। सिंगूर और नंदीग्राम इसकी विश्सनीयता की कॉफिन की आखिरी कील थी। 2007 तक प्रकाश करात वैसे ही क्मयुनिस्ट थे जैसे मुलायम सिंह यादव सोसलिस्ट। लेकिन अगर पूंजी के पहरुए अपने को कम्युनिस्ट और शोसलिस्ट कहें तो यह क्रांतिकारी संभावनाओं के अपूरणीय व्याहरिक क्षति के वावजूद समाजवाद और साम्यवाद के विचारों की सैद्धांतिक विजय है। पिछले महीने कांग्रेस के समर्थन के मुद्दे पर एक और फूट की आहट देती सीपीयम की केंद्रीय कमेटी में गुटबाजी का सतह पर आना संशोधनवादी कम्युनिस्ट आंदोलन में बिखराव की ताजा मिशाल है, आखिरी नहीं।
29.01.2018         



[1] 1920 में ताशकंद और 1925 में कानपुर में पार्टी के गठन सम्मेलनों के संस्थापक सदस्य शौकत उल्मानी ने जुलाई-अगस्त 1967 के मेनस्ट्रींम में ‘रूसी क्रांति और भारत’ शीर्षक की लेखमाला में पार्टी के अंदर शपरुआती विवादों का भी विस्तृत जिक्र किया है। उन्हें कानपुर और मेरठ षड्यंत्र मुकदमों में कुल 16 साल की सजा मिली थी। 
[2]John P. Haithcox,  ‘The Roy-Lenin Debate on Colonial Policy: a New Interpretation’
The Journal of Asian Studies, Vol. 23, No. 1 (Nov., 1963), pp. 93-101

[3] Hisorical and Polemocal Documents of the Communist Movement of India, Vol. 1 (1943-51) complied and published by T. Nagireddi Memorial Trust, Vijayavada, 2008. pp. 449-592
[4] Hisorical and Polemocal Documents of the Communist Movement of India, Vol. 2 (1964 -72) complied and published by T. Nagireddi Memorial Trust, Vijayawada, 2008. pp. 20-233. 

No comments:

Post a Comment