इलाहाबाद विवि के एक ग्रुप में एक सज्जन हैं मेरी किसी भी पोस्ट या कमेंट पर या तो वाम-वाम अभुआने लगते हैं या रोहिंग्या, कश्मीरी पंडित टाइप के 2-3 रटे-रटाए भजन शुरू कर देते हैं। एक किसी असंबद्ध विषय पर पूछने लगे कि रोहिंग्या पर आप इतना लिखते हैं, कश्मीरी पंडितों के पलायन पर क्यों नहीं? उस पर:
Arvind Rai आप पढ़ते ही नहीं। रोहिंग्या पर लिखने का मौका नहीं मिला, 20011 की कश्मीर पर हमारी(जनहस्तक्षेप की) रिपोर्ट में 30872 शब्दों का पूरा एक अनुभाग कश्मीरी पंडितों और संघी-फासावादियों द्वारा इस गंभीर मुद्दे के सांप्रदायीकरण पर है। थोड़ा तथ्यपरक इतिहासबोध विकसित करो, कब तक अफवाहजन्य इतिहासबोध से काम चलाओगे? दिमाग को कामचोर मत बनाओ। मैं बुड्ढा आदमी हूं, कितना लिखूंगा? आप भी लिखने की आदत डालें। लेकिन लिखना बहुत मुश्किल काम है, पढ़ना और दिमाग लगाना पड़ता है, रटे-रटाए जुमलों के विषयांतर से विमर्श विकृत करना आसान, जो आप करते रहते हैं। 3-4 बात रट लिया पंजीरी खाकर वही भजन गाते रहते हो। आपके भजनखोरी का यह अंतिम जवाब है, आपको ब्रह्मा भी बाभन से इंसान नहीं बना सकता। मस्त रहो, पंजीरी खाकर और चरणामृत पीकर भजनगाते हुए बाकी जीवन भी कट ही जाएगा।
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