राजेश राहुल हमलोगों के साथ जेयनयू में था और 1983 में हमीं लोगों के साथ रस्टीकेट हुआ था। हमलोगों ने 183-84 में एक नुक्कड़ नाटक किया था, 'गोलचक्कर सर्कस कंपनी', राहुल ने 'पदयात्री जी' (चंद्रशेखर) की भूमिका अदा की थी स्क्रिप्ट हम दोनों ने लिखा था, पता करना पड़ेगा कि किसी के पास है क्या? नांगलोई में एक फैक्ट्री में मजदूरों की हड़ताल थी। होली को रंग लगाने के जुर्म में एक मैनेजर ने एक मजदूर को थप्पड़ जड़ दिया, मजदूर ने वापस थप्पड़ जड़ दिया। निकाल दिया गया। हम लोग भगत सिंह शहादत के दिन पहुंचे तो एक पारी खत्म हो रही थी, दूसरी शुरू। चादर पर 496 रुपए आ गए। हमलोगों ने वह उनकी यूनियन को दे दिया। हम लोग लिबरेसन से जुड़े थे। उर्मिलेश (वह भी रस्टीकेटेड था) और अभय दूबे नाटक में नहीं थे, बाद की जनसभा में अभयदूबे इतना लंबा बोले कि राहुल ने उनके कान में कहा कि उसे कविता पढ़ने दें। अभय ने माइक राहुल को दे दिया और आधा घंटा नाराज रहे। असली कहानी से विषयांतक हो गया। राहुल का ऑफिसियल नाम राजेश कुमार था। प्रॉक्टर ऑफिस ने कई राहुलों को शोकॉज (प्रेमपत्र) जारी किया। अंत में वह प्रॉक्टर ऑफिस में गया और रामेश्वर सिंह (चीफ प्रॉक्टर) से बोला, 'दरोगा जी, आपके रजिस्टर में मेरा नाम राजेश कुमार सिंह है, बेचारे राहुलों को मंग करना बंद करें'। हम लेग कहते थे ये मांग कर प्रेमपत्र ले आया। 1991-92 में एक दिन हम लोग मंडी हाउस पर घंटों अड्डेबाजी किए। हम दोनों फ्रीलांसर (बेरोगार) थे। जाते समय वह मुझसे 100 रु. ले गया। उसके 8-10 दिन बाद मुनिरका विहार में अपने कमरे से एक दिन कहीं गया और उसके बाद कभी किसी को मिला नहीं। जेयनयू के लोग देश भर में उसकी खोज किए कहीं मिला नहीं। हम कुछ लोग अब भी खुशफहमी पाले हैं कि किसी दिन किसी कंद्र से निकल कर हम सबको अचंभित कर दे। रस्टीकेसन के बाद एक दिन हमलोग (गोरख पांडे, शशिभूषण उपाध्याय [वर्तमान में इग्नू में इतिहास के प्रोफेसर], उर्मिलेश, राहुल, दिलीप उपाध्याय [दिवंगत] आदि) डाउन कैंपस अम्मा के ढाबे पर लंबी अड्डेबाजी कर रहे थे। गोरख सार्त्र के जीवन की किसी घटना का विश्लेषण कर रहे थे। राहुल ने झोले से एक नोटबुक निकाला और कुछ लिखने लगा। मैंने सोचा गोरख की बातों का नोट ले रहा है। आधे घंटे में उसने एक खूबसूरत कविता लिख दिया, 'जब छूटती है कोई जगह'। बहुत ही सुंदर बींबों का निर्तामाण किया था, लाब के पानी में कंकड़ फेंकने से पानी में पैदा हलचल और लूसियो विस्कांती (द डैम्ड, 1969) की फिल्म के दृश्यों की रील की तरह आंखों में तैरती पिछली यादों के दृश्यों के बीच। याद नहीं है अगर साथी बीयम वह भी कहीं से खोज दें। सलाम साथी। शैलेंद्र के शब्दों में 'जब तलक दम है कलम में हम तुम्हें मरने न देंगे'। लाल सलाम साथी।
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