Sunday, August 14, 2016

इरोम शर्मीला के नाम

सुबह उठकर कल की कामचोरी की भरपाई करते हुए एक लेख पूरा करने का विचार था लेकिन कल सरला जी की इरोम पर सुंदर कविता पर कल छोटी सी तुकबंदी में में कमेंट लिखा गया था, चाय के साथ फेसबुक खोल लिया और कमेंट अधूरा लगा सो पूरा करने लगा. वैसे आलोचकभाव से पढ़ने पर मुझे अपनी तुकबंदियां मेरी पसंद की कविताओं जैसी नगहीं लगतीं, लेकिन मार्जक्बस ने कहा है कि अर्थ ही मूल है, कलम पर आर्थिक दबाव हटते ही इसकी आवारागर्दी कुछ बढ़ गई है. और एक सठिआए आवारा को कलम की आवारगी पर नियंत्रण का हक़ नहीं बनता. मैं कुदरती कवि तो हूं नहीं, फेसबुकिया कवि हूं, सो....

इरोम शर्मीला के नाम

सुनो साथी इरोम!
मैं मिला नहीं कभी तुमसे
मगर समानुभूति है तुमसे
एक साथी इंसान के नाते
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते
जानता हूं तुम्हारी जंग के बारे में
अपनी जमीन पर फौजी हुकूमत के खिलाफ
हत्या और बलात्कार के रिवाज के खिलाफ
तब से जब सुना था पहली बार
एक अकेली युवती की
विशाल सेना के विरुद्ध बुलंद ललकार

16 साल निराहार लड़ती रही
तुम्हे पता ही नहीं चला
कि तुम्हारी हाड़-मांस की काया
कब बुत बन गई
और आराध्य की तलाश में भटकते पंथ को
एक आराध्य देवी मिल गयी
तुम जानती ही हो बुतों पर चढ़ावे का रिवाज
फूलते-फूलते रहे कई मुल्ले-पुजारी
बनी रही जब तक तुम आराध्य मूर्ति
बढ़ती रही भक्तों की तादात देश-विदेश में
लेकिन मैं तो नास्तिक हूं
तन से तो नहीं मन से तुम्हारे साथ था
सलाम करता था
नाइंसाफी को ललकारने के
तुम्हारे तुम्हारे जज्बे को
हैरत होती थी
हृदयहीन हुकूमत में संवेदना जगाने की
तुम्हारी जुर्रत पर
खुश होता था
असंभव पर निशाना साधने की
तुम्हारी फितरत पर
जब तुम बुतपरस्तों की आराध्य थी
बुत को इंसान बनते देख
टूटने लगा भक्ति का नशा
किनारा कर लिया भक्तों ने
समझकर कोई प्रेतात्मा

और अब भी हूं साथी इंसान के नाते
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते
तुम्हारे हाड़-मांस के इंसान होने के अधिकार के साथ
हर इंसान की तरह तुम्हारे प्यार करने के अधिकार के साथ
चुनाव से निज़ाम बदलने की खुशफहमी के अधिकार के साथ
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते

सुनो शर्मीला!
हैरत में मत पड़ो पाकर खुद को अकेला
लड़ती रहो बढ़ती रहो
हम वाहक हैं अपनी गौरवशाली परंपराओं के
ढोते हैं बोझ पूर्वजों की पीढ़ियों की लाशों की
सनातनी कर्तव्यबोध के साथ
हम मुर्दापररस्त हैं
करते हैं बुतों की पूजा
पत्थर में प्राणप्रतिष्ठा
लेकिन जैसे ही बुत में आ जाती है सचमुच की जान
बन जाता है बुत सचमच का इंसान
भागता है भक्त समझकर उसे प्रेतात्मा
भटकता है इंसान भूतों की तरह
भटकाव बेहतर है मिथ्या स्पष्टता से
मैं नास्तिक हूं मैं
भटकते हुए तुम्हारी तलाश-ए-राह से
समानुभूति के साथ तुम्हारे साथ हूं
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते
(ईमि: 15.08.2016)

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