एक स्वघोषित दक्षिणपंथी पत्रकार ने पुलिस से छिपकर लाहौर से निकलने के लिए कीर्तनमंडली के सदस्य का भेष बदले आज़ाद के जनेऊ वाली तस्वीर के ज़िक्र से मजाक बनाते हुए लिखा कि वामपंथियों का बस चलता तो आजाद को भी कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पकड़ा देते, पढ़ने लिखने से परहेज न होता तो संघी जान पाता कि आज़ाद एक ऐसे दल के मुखिया था जो मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर आधारित था. उस पर यह कमेंट:
मान्यवर, शहीद चंद्रशेखर जैसे इतिहास क्रांतिकारी को कठमुल्ला बताने के पहले थोड़ा ऐतिहासितकतथ्यान्वेषण कर लेना चाहिए. चंद्रशेखर आजाद उतने ही क्रांतिकारी थे, जितने भगत सिंह. भगत सिंह लेखक भी थे आजाद नहीं. पुलिस को चकमा देने के लिए उनकी छद्मभेष की तस्वीरों से उनके व्यक्तित्व का चित्रण, इन महान क्रांतिकारियों के अपमान के साथ, इतिहास को विकृत करने का अपराध है. न तो भगत सिंह शूट-बूट वाले साहब थे न आजाद ब्राह्मणवादी कठमुल्ले जैसा आप साबित करना चाह रहे हैं.1928 में बढ़ती उपनिवेशविरोधी भावनाओं को देखते हुए, 1922 में गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद शचींद्र सान्याल के नेतृत्व में 1923 में गठित "हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी"(यहआरए) के नेतृत्व ने दल को सामाजवादी आयाम देने के लिए पुनर्गठन का निर्णय लिया. 7-8 अगस्त को फिरोज शाह कोटना में नए दल का स्थापना सम्मेलन हुआ जिसमें हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का नाम बदल कर 'हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएसन'(यचयसआरए) रखा गया. घोषणा पत्र, 'बम का दर्शन' शहीद भगवती चरण वोहरा तथा भगत सिंह ने तैयार किया जिसमें हिदुस्तान के कामगारों को विदेशी-देशी शोषकों-उत्पीड़कों से मुक्त कर "सर्वहारा के तानाशाही" की बात की गयी है. काकोरी कांड के आरोपी, आजाद भूमिगत थे तथा सम्मेलन में भागीदारी नहीं किए. आजाद की अनुपस्थिति में, उनके अनुभव, समझ और संगठन क्षमता को देखते हुए उन्हें नए दल का 'कमांडर' चुना गया. घोषणापत्र आजाद से विस्तृत बहस के बाद उन्ही (बलराम छद्म नाम) के हस्ताक्षर से जारी किए गया. हां, यह जरूर है कि दल के नाम और विचारधारा में परिवर्तन, उपनिवेशविरोधी कार्यक्रम के साथ देश में समाजवाद के निर्माण का भी कार्यक्रम शामिल हो गया. हां इतना जरूर है कि दल की समाजवादी दिशा के पीछे भगत सिंह का प्रभाव था. काकोरी कांड और उसके मुकदमें के दौरान, भगत सिंह के प्रयोसों में पंजाब, बंगाल, बिहार जैसी कई जगहों पर छोटे-छोटे क्रांतिकारी संगय़नों/समूहों का उभार हुआ. इन दलों के साथ मिलकर यचआरए ने उपरोक्त सम्मेलन आयोजित किया था. 1923 में व्ययापक पैमाने पर वितरित यचआरए के घोषणा पत्र में एक ऐसा निजाम कयम करने की बात की गयी है स्काथापना की बात की गयी है जिसमें "मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव बना दिया जाएगा". यचआर केो इस समाजवादी रुझान ने यचयसआरए में मार्क्सवादी रूप ले लिया. इसका लक्ष्य जनसंघर्षों से, "सर्वहारा की तानाशाही" स्थापित करना तथा "परजीवी शासकों की बेदखली" हो गया. इसने अपने को जनसंघर्षों की अग्रिम पंक्ति में जनता के सशस्त्र दस्ते के रूप में पेश किया. जिसका काम था शब्दों और कार्रवाइयों द्वारा क्रातिकारी जनचेतना का प्रसार. इसके आदर्सशअन्य आंदोलनों -- कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनों की कार्रवाहिओं तथा ग्रामीण किसान आंदोलनों -- में भी परिलक्षित होने लगे. भगत सिंह के अनुरोध पर दल ने साइमन कमीसन के काफिले पर बम फेंकने का निर्णय लिया था.भगवती भाई और भगत सिंह दल के मुख्य सिद्धांतकार थे. लेकिन कोई भी दस्तावेज बिना आजाद की व्यापक विमर्श तथा सहमति के बिना नहीं जारी होता था.
सांडर्स हत्या के बाद पुलिस को इनके अड्डे का पता चल चुका था. भगत सिंह और सुखदेव भगवती भाई के घर आए. भगत सिंह ने अपने बाल कटवाकर हैट पहन लिया था. आनन-फानन में लाहोर से पुलिस को चकमा देकर निकलना था. भगवती चरण वोहरा की पत्नी, दुर्गा भाभी (मैंने 1987 में दुर्गा भाभी का एक पत्रिका के लिए इंटरविव किया था) और गोद में उनका नवजात बेटा सचिन मेम साहब बन गयीं. जल्दी-जल्दी सामान बांध तांगा मंगा 'साहब-मेम साहब' के दो चिकट और 'नौकर' राजगुरु का सर्वेंट क्लास का टिकट ले, 500 से अधिक पुलिस वालों को चकमा देकर तीनों कलकत्ता चल दिए. एकमात्र उपलब्ध भगत सिंह की वह तस्वीर पुलिस को चकमा देने के छद्मभेष की है. उस तस्वीर से भगत सिंह को 'साहब न मानें. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गोलवल्कर भगत सिंह और गांधी की, आंदोलन की दोनों धाराओं को अंधकार लके गर्त निकली बताता था और आरयसयस का उद्देश्य देश को गौरव छिखर पर ले जाना है. फासीवादी अपरिभाषित शब्दावली में फरेब करता है. उसने कभी नहीं बताया कि वह गौरव का शिखर है क्या? हरिश्चंद्र का सतयुग, जहां इंसानों की खरीद-फरोख्त की खुली बाजार थी? या त्रेता जहां एक शूद्र, संबूक की तपस्या से ब्रह्मांड हिल जाता है और हनुमान, भरत जैसे चेलों को भेजने की बजाय महाराज राम खुद उसका बध करने निकल पड़ते हैं? या द्वापर, जहां एक दरबारी गुरू एकलब्य की तीरंदाजी से आतंकित हो उसका अंगूठा काट लेता है? फासीवादी परिभाषा नहीं करता लोगों की भावनाओं को दोहकर उल्लू सीधा करता है. इन्होने भगत सिंह के भी संघीकरण का प्रयास किया, लेकिन उनके लेखन ने उन्हें बचा लिया. आजाद भेष बदलने में माहिर थे. काकोरी कांड में पुलिस उन्हें नहीं पकड़ पाई थी. उन्होने एक आस्थावान ब्राह्मण का भेष धर ढोल मृदंग बजाती जा रही एक कीर्तन मंडली में मिल गए, पुलिस उनका सुराग न पा सकी. बड़ी कृपा होगी यदि छद्म भेष में जनेऊधारी क्रांतिकारी को पोंगापंथी ब्राह्मण साबित करने की कोशिस कर एक मार्क्सवादी सिद्धांतो पर आधारित दल के मुखिया और महान शहीद का और इतिहास का इतना भयंकर अपमान न करें. आभारी रहूंगा.
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