Sudhir Kumar Jha यह सवाल मुझसे पिछले 4 दशकों से पूछा जा रहा है. मैं इस पर बहुत कुछ कह-लिख चुका हूं. जब भी जात-पात या ब्राह्मणवात की विसंगतियों की बात करता हूं लोग बात को खंडित करने की बजाय यही सवाल दाग देते हैं मिश्र क्यों लिखते हैं? क्यों भाई मिश्र होने के बावजूद ब्राह्मणवाद की आलोचना क्यों नहीं कर सकता? मैं नास्तिक हूं, ब्राह्मण से इंसान बनने का मतलब शूद्र बनना नहीं है. बन भी नहीं सकता. शूद्र होने की पीड़ा की मेरी अनुभव जन्य अनुभूति नहीं है, पर्यवेक्षणजन्य अनुभूति है, वह भी सीमा रेखा की दूसरी तरफ से. हां मैं जब और जहां यानि 1950 के दशक के उत्तरार्ध में अपने ही गांव में शूद्र पैदा होता तो पता नहीं प्राइमरी तक की पढ़ाई कर पाता कि नहीं और आप को अपने लेखन से परेशान कर पाता. मैं अपने गांव से विश्वविद्यालय जाने वाला ब्राह्मणों में भी पहला बालक था. कहां पैदा हो गया इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, इसलिए उसे छिपाने या उस पर गर्व करने की कोई बात नहीं है. गज़ब है कि मैं जो लिखता हूं उस पर सवाल की बजाय सबकी निगाह मेरे नाम के मिश्र पर जाती है. बहुत से लोग मेरे आगे-पीछे क्रमशः पॅोफेसर और मिश्र देख कर रिक्वेस्ट भेज देते हैं. प्रोफेसरी या मिश्रपन के कोई लक्षण न देख निराश होते हैं. जन्म से ब्राह्मण होने के नाते समाज की एक वैज्ञानिक(आलोचनात्मक) सोच के साथ समाज की समझ विकसित करना तथा बदलाव की प्रक्रिया में यथा-सामर्थ्य योगदान देना और भी वांछनीय हो जाता है क्योंकि उसके पास पारंपरिक रूप से बौद्धिक संसाधनों की सुलभता रही है. मेरी समझ में नहीं आता यह शिक्षा व्यवस्था क्या ज्ञान देती है कि हम अपने जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की स्मिता से ऊपर नहीं उठ पाते? (हल्के-फुल्के अंदाज़ में) इसलिए भी नाम का मिश्र नहीं हटाता कि लोगों को पता रहे कि शिक्षा पर तिकड़म से एकाधिकार के जरिए ज्ञान को संकुचित दायरे में परिभाषित कर समाज को हजार से अधिक साल आर्थिक-बौद्धिक जड़ता में जकड़ने वालों में मेरे भी पूर्वज शामिल थे. यदि आप समाज की सर्जनात्मक ऊर्जा को प्रस्फुठित नहीं होने देंगे, समाज जड़ बनेगा. जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूल मंत्र है. कोई भी तर्कशील इससे सहमत हो सकता है क्या? तो हर तर्कशील इंसान का इस विचारधारा के विनाश का प्रयास नहीं करना चाहिए, (बावजूद मिश्र या झा होने के)? मैं किसी ब्राह्मण व्यक्ति का नहीं, ब्रह्मणवाद की विचारधारा का विरोधी हूं और इसके विनाश की प्रक्रिया में आजीवन योगदान देने को कृतसंकल्प. ईश मिश्र नाम के रूप में जस-का-तस रहेगा क्योंकि बदलने का कोई औचित्य मुझे नहीं दिखता. बहुत लंबा जवाहब हो गया.
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