Saturday, August 27, 2016

बेतरतीब 10

चुंगी के सदस्यों को अपना परिचय:

1. भूमिका

मणि बाला​ तुमने एक कमेंट में कहा था कि सब लोग मेरे बारे कुछ-कुछ जानते हैं तुम सिर्फ यह जानती हो कि मैं  एक शिक्षक हूं, वैसे तो यही मेरा संपूर्ण परिचय है. लोग तो मेरे बारे में ऐसा भी बहुत कुछ जानते हैं जो मैं भी नहीं जानता. हा हा. आत्मावेषण जिंदा कौमों की उसी तरह निरंतर प्रक्रिया है जिस तरह मुर्दा कौमों की विकल्पहीनता. श्री Markandey Pandey​ जी का आभार कि उन्होंने (मेरे ख्याल से) मुझे दुबारा इस ग्रुप में भर्ती किया कि इलाहाबादियों से मेरा विमर्श होता रहेगा. बहुत से वोगों ने उनकी इस घोषणा का स्वागत किया. मैंने जीवन के 17-21 वर्ष(नैनी में बिताए कुछ वक्त समेत)का महत्वपूर्ण भाग इलाहाबाद में बिताया है. मैं जो हूं (जैसा भी), उसकी बुनियाद इलाहाबाद में पड़ी जिस पर भवन जेयनयू में खड़ा हुआ. पांडेय जी ने जोड़ लिया तो, जंह-जंह पांव पड़ें संतन के तंह-तह बंटाधार. वास्तविक दुनिया के कामों से समय चुराकर काफी वक्त यहां लगा दिया. किंतु मैं समय निवेश करता हूं नष्ट नहीं. हो सकता है एकाध लोगों की आस्था डिगकर तर्क का सहारा मांगे. आज तक पर गाय पर हाथ फेरने से रक्तचाप की बीमारी से मुक्ति और गोमूत्रपान से कैंसर से मुक्ति की गडकरी की घोषणा से प्रेरित गोमाता पर ताजी कविता डाल  दी, जरा निजी आक्षेपों के कमेंट्स देखो. कोई मेरी उम्र का लिहाज करके ज्यादा बुरा नहीं कहता तो कोई मेरी अंत्येष्टि की क्रिया पूछता है तो कोई मेरे पिताजी की. जोहरा बेगम जो हाल में दिवंगत हुईं, उनसे एक पत्रकार ने (1992-93 के आसपास) पूछा कि इस उम्र में उन्हें मौत का डर नहीं लगता तो उन्होने उससे पूछा कि वह जानता है कि वह उनसे पहले नहीं मरेगा? इन कुसंवेदनशील बंद दिमागों के ऊपर समय बर्बाद करना मूर्खता है इस लिए मैं अदृश्य कर देता था. अरे भाई मेरे विचारों का खंडन-मंडन करो, सीधे मेरी मौत पर मत पहुंचो क्योंकि आपको भी नहीं मालुम है कि आप मुझसे पहले नहीं मरेंगे. मैं तो 135 साल जिऊंगा और जब तक जिऊंगा, जो सच लगे वह कहूंगा, उसके लिए अड़ूगां लड़ूंगा. न भगवान से डरता हूं न भूत से, न ही मौत से, गुंडों मवालियों से तो बिलकुल नहीं, मैं अपनी दिवंगत मां को ही मानता था और अब मातृविहीन हूं. किसी गाय, भैंस, बकरी को मां नहीं मानता न बैल-भैंसे को बाप. ये उपयोगी पशु हैं. बैल का तो अब कोई उपयोग भी नहीं रहा. गोमाता पर मेरी कविता से उत्तेजित लोग बौखलाहट में कभी मेरे सिर में गोबर भरते हैं तो और क्या क्या? दर-असल इन लोगों ने पढ़ना-लिखना बंद कर दिया है तो विषय पर बोलने में अक्षम निजी आक्षेपों से विषयांतर कर विमर्श को विकृत करते हैं. ऐसे कुछ ही होते हैं. बहुमत हमेशा सज्जनों का होता है लेकिन बहुमत सज्जनता की आपराधिक चुप्पी अल्पमत दुर्जनता को वर्चस्व का अवसर मिल जाता है.

शुरू किया था तुम्हें परिचय बताने कि एक पैराग्राफ परिचय के परिचय में चला गया. अगला भाग भोजनोपरांत अगली पोस्ट में.

चुंगी के सदस्यों से परिचय 2 
1. भूमिका  (भाग 2)
बचपन में पूरे गांव में मेरी बहुत अच्छे बालक की छवि थी उस छवि को निखारने के लिए मैं और अच्छा बनने की कोशिस करता. 8वीं में स्कूल में एक टीचर बच्चों से पूछ रहे थे कि कौन क्या बनना चाहता है? कोई दरोगा कोई बीडिओ कोई और ऐसा ही कुछ. मुझे ये सब बनना उपयुक्त न लगा. मैंने कहा मैं अच्छा आदमी बनूंगा. अच्छा करने से अच्छा बना जाता है. अच्छा करने के लिए जानने की जरूरत है कि अच्छा क्या है? जवाब दिमाग लगाने से मिलेगा. तब से मैं बचपन की तुलना में लगातार अच्छा बनने की कोशिस करता रहा. लेकिन बहुत लोगों का किसी और का अच्छा होना खलने लगता है. मैं जब 28 साल की उम्र में बाप बना तो सोचने लगा अच्छा बाप कैसे बनूं, मैं तो जन्मजात आवारा हूं (इसीलिए मेरा कलम भी आवारगी में कविता लिखने लगता है). गणित का विद्यार्थी रहा हूं, अध्ययन में ऐतिहासिक पद्धति के साथ विश्लेषणात्मक, इंडक्टिव तथा डिडक्टिव  पद्धतियों  का भी इस्तेमाल करता हूं. मैंने 3 सूत्री फॉर्मूला तैयार किया तथा अपने बचपन के अनुभवों की दुनिया में विचरणकरण कर उनका पुष्टिकरण किया. 
1. उनके साथ जनतांत्रिकता, पारदर्शिता और मित्रवत समानता का व्यवहार. (treat them democratically, transparently and at par as a friend). समानता एक गुणात्मक अवधारणा है; मात्रात्मक इकाई नहीं. 
2. अतिसय परवाह; अतिशय संरक्षण; अतिशय चिंता; और अतिशय अपेक्षा से उन्हें उत्पीड़ित न करें. (Don't torture them with over caring; and over expecting). तमाम मां-बाप अज्ञान में अपनी अपूर्ण इच्छाएं बच्चों पर थोपकर उनकी नैसर्गिक सर्जनात्कता को कुंद कर देते हैं. 
3. बाल अधिकारों तथा बालबुद्धिमत्ता का सम्मान करें. हम बच्चों का सोचने का हक ही हड़प लेते हैं. कभी आप भौंचक रह जाते हैं बच्चों की कई मौलिक बातों पर. उस मौलिकता को प्रोत्साहन चाहिए अनुशासन के नाम पर उनका दमन नहीं. 

मेरी बेटियां बड़ी हो गयी हैं, मेरी दोस्त हैं और हम तीनों को एक दूसरे पर फक्र है. कहने का मतलब मैं अच्छा बच्चा था और लगातार और अच्छा बनने की कोशिस में जितना अच्छा बच्चा था उससे तो अच्छा ही बुड्ढा होऊंगा. संयोगों की दुर्घटना से विवि में स्थाई नोकरी मिल गयी जिसके बारे लोग कहते हैं कि देर से नौकरी मिली मैं कहता हूं सवाल उल्टा है मिल कैसे गई? वास्तविक दुनिया और आभासी दुनिया से निष्कासनों का मेरा रिकॉर्ड बहुत अच्छा है. और अकड़ कर सोचता हूं नुक्सान उन्हीं का है. हा हा. वास्तविक दुनिया के निष्कासनों की कहानी फिर कभी. फेसबुक की आभासी दुनिया में सबसे अधिक इलाहाबाद के ग्रुपों से निष्कासित हुआ हूं. प्रयाग कुटुम्ब; प्रयाग की माटी; लल्ला की चुंगी; तफरीहगाह या ऐसा ही कुछ (Pushpa Tiwari​ जी सही नाम बता सकती हैं);Alumni of university  of Allahabad. मुझे लगता है लोग नाम के आगे पीछे क्रमशः प्रोफेसर और मिश्र देखकर जोड़ लेते हैं और प्रोफेसरी तथा मिश्रपन के कोई लक्षण न पा निकाल देते हैं. 

दूसरी पोस्ट भी भूमिका का ही विस्तार हो गयी. तीसरी मैं परिचय शुरू करता हूं. इस बहाने आत्मकथा की सामग्री में बढ़ोत्तरी होती रहेगी.
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