न करना गिला जख़्मों का है रीतकाल की बात
होती थी औरत जब हुस्न के जलवे की सौगात
तोड़ दिया जब तुमने हुस्न के जलवे का पिंजरा
बंद करो ज़ख़्म सहने का सिलसिला बेशिकवा
जख़्म के बदले जख्म नहीं है उचित विचार
जख़्म दुखते रहेंगेे हो न अगर उनका प्रतिकार
होता नहीं तजुर्बा जिनका जख़्म खाने का
रंज नहीं होता उन्हें औरों को जख़्म देने का
माना कि खंजर का जवाब नहीं है खंजर
ढाल उठाना तो वाजिब है मगर
आ जाएगा इससे ख़ंज़र पे जो थोड़ा सा ख़म
इसका ही होगा उनको बहुत भारी ग़म
जख़्म के बदले गम है अच्छा प्रतिकार
आये शायद इससे उनमें रंज़ का विचार
(ईमि: 02,08.2016)
(बस यों ही कलम की आवारागी)
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