विस्थापन का
राजनैतिक अर्थशास्त्र
ईश मिश्र
राज्यसभा में बहुमत के अभाव में, अध्यादेशों
के जरिये मौजूदा सरकार विकास की की अश्चर्यजनक हड़बड़ी से विकास के मॉडल का सवाल
एक बार फिर विवाद के घेरे में आकर तथाकथित जनतंत्र में टिकाऊ विकास के मुद्दे को
विमर्श के केंद्र में ला दिया है. तथाकथित इसलिये कि इस जनतंत्र में जन
(कामगर,आमजन) उसी तरह गायब है जैसे प्लेटो
के रिपब्लिक से पब्लिक (उत्पादक वर्ग) या जैसे गधे के सिर से सींग. करनी-कथनी का
विरोधाभास (दोगलापन) पूंजीवाद की बपौती नहीं है, बल्कि सभ्यता के हर युग यानि हर
वर्ग समाज की उसी तरह चिरंतन प्रवृत्ति रही है जैसे शोषण-दमन हर वर्ग समाज के
राजनैतिक अर्थशास्त्र का मूल मंत्र. पूंजीवाद सर्वाधिक विकसित वर्ग समाज है,
इसलिये यह विरोधाभ भी चरम पर है. भारत में भूमि अधिग्रहण के मौजूदा अध्यादेश के
परप्रेक्ष्य में विनाश की बुनियाद पर टिकी पूंजीवादी विकास की अवधारणा ने करोड़ों
देशवासियों के समक्ष अभूतपूर्व पैमाने पर जबरन विस्थापन का भयानक खतरा पैदा कर
दिया है. वैसे तो पूंजीवाद की बुनियाद ही विस्थापन पर पड़ी लेकिन इसके मौजूदा
नवउदारवादी चरण में यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है. ऐसे में विकास की
अवधारणा पर विमर्श वांछनीय है. इन सवालों पर गहन चिंतन की जरूरत है – क्या है
विकास? कैसा विकास? किसका विकास? किसके लिए विकास? किसकी
कीमत पर? इसके लिए विस्थापन का राजनैतिक अर्थशास्त्र
समझना अवश्यक है. मार्क्सवादी चिंतक डैविड हार्वे अपनी पुस्तक नव साम्राज्यवाद (New Imperialism) में विस्थापन द्वारा संचय (Accumulation by Dispossession) अध्याय में इसका इस्तेमाल निजीकरण-उदारीकरण के
संपूर्ण नवउदारवादी अर्थकतंत्र के लिए किया है किंतु इस पर्चे का सरोकार विकास के
नाम पर किसानों के जबरन विस्थापन और दंगों के परिणामस्वरूप अल्पसंख्यकों तथा
दलितों के आंतरिक विस्थापन तक सीमित है.
सामंतवाद के खंडहरों पर पूंजीवाद की
अट्टालिका विस्थापन की बुनियाद पर खड़ी हुई. ऐतिहासिक प्रगति को निजी मुनाफा
कमाने-बढ़ाने की गतिविधियों का अनचाहा परिणाम बताने वाले, औद्योगिक क्रांति के
शुरुआती दौर के जाने-माने पूंजीवादी अर्थशास्त्री, ऐडम स्मिथ, असमानता की जड़, मूल
पूंजी, या कार्ल मार्क्स की शब्दावली में तथाकथित आदिम संचय का श्रोत किसी मिथकीय
अतीत में साधू-संतों सा अनुशासित जीवन की बचत बताते हैं. कार्ल मार्क्स इस मिथकीय
फरेब का पर्दाफास कर हकीकत बयान करते हैं कि तथाकथित आदिम संचय का श्रोत अनुशासित
जीवन की बचत नहीं बल्कि विकास के नाम पर किसानों-कारीगरों का व्यापक विस्थापन था
जो नवउदारवादी वर्तमान में अपने क्रूरतम रूप अख्तियार कर रही है. तटस्थता के
मुखौटे में राज्य बाजार का अदृष्य हाथ नहीं रहा, खुल कर उसकी लठैती करने लगा है,
जिसका सबसे बेशर्म उदाहरण ताजा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश. जिसके तहत सरकार कॉरपोरेट
की अक्षय भूख मिटाने के लिये कभी भी किसानों, शिल्पियों, कारीगरों, खेत मजदूरों,
तथा हाशिये पर जी रहे अन्य ग्रामीण तपकों की थाली छीन कर उनके पेट पर तगड़ा लात
मार कर शहरों की फुटपाथों पर फेंक सकती
है. क़ारपोरेट नीत विकासनीति, अतिरिक्त पूंजी से पैदा मौजूदा पूंजीवादी संकट का
उपाय आवारा भूडलीभूमंडलीय पूंजी के तीसरी दुनिया के किसानों की बेदखली में निवेश
में ढूंढ़ रहे हैं. भूडलीभूमंडलीकरण के बाद और किसी चीज का भूडलीभूमंडलीकरण हुआ हो
या नहीं पूंजी का चरित्र भूडलीभूमंडलीय हो गया है.यह देशकाल की सीमा पार कर गयी
है. हमारे
विकासपुरुष प्रधानमंत्री सस्ते, कुशल श्रम की उपलब्धता का वायदा कर ही चुके हैं.
विस्थापन होगा तो विरोध भी होगा. विरोध होगा तो दमन भी होगा. दमन का भी विरोध
होगा. हम इतिहास के एक कठिन और निर्णायक दौर से गुजर रहे हैं, जनतंत्र के चहितों
को लंबे संघर्ष के लिये कमर कस कर रखना है.
इस पर्चे का मकसद, विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
में विस्थापन के राजनैतिक-अर्थशास्त्र की समीक्षा और विस्थापन विरोधी आंदोलनों की
सफलता-असफलता पर विमर्श की जरूरत तथा आंदोलनों के समर्थन की रणनीति पर चर्चा करना
है.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1882 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद