Sunday, February 1, 2015

क्षणिकाएं 41(621-30)

621
 इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1970 के दशक के वुद्यार्थी परिषद के नामी-गिरामी नेता और छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष उप्र भाजपाबौद्धिक सेल के प्रभारी राजनैतिक बेरोज़गारी से जूझते हुये मन बहलाने के लिये फेसबुक पर महाभारत-रामायण के हिंदुत्व संसकरण पोस्ट करते रहते हैं. अाज उन्होंने मन की पीड़ा किसी का शेर पोस्ट कर व्यक्त किया कि मंज़िल पर वे पहुंचे जो सफेर में शरीक ही न थे. उस पर यह टिप्पणी लिा गयी.
लडता रहा है हमेशा ही गरीब सिपाही
मिलती नहीं मगर कभी उसे जीत की मलाई
लड़ता था जब अौरंगजेब-ओ-शिवाजी की लड़ाई
लेता था लूट के माल का चौथाई
हड़प जाता था राजा बाकी तीन चौथाई
न था राष्ट्रप्रेम न राष्ट्रवाद का बवाल
जान की जोखिम के पीछ था पेट का सव
न था हिंदु-राष्ट्र न ही निज़ाम-ए-इलाही
मकसद था माल मचाकर तबाही
हुआ जब पूंजीवाद का आगाज़
सल्तनतें बन गयीं राष्ट्र-राज्य
खिसकने लगी ब्रह्मा से वैधता की बुनिीयाद
लोगों की नई अफीम बन गया राष्ट्रवाद
पुराने की तरह अमूर्त है यह नया धर्म
समझता नहीं जो सिपाही के मन का मर्म
करता है सिपाही ही आज भी लड़ाई
 सात घेरे की सुरक्षा में वो हड़पता मलाई
लेता है सिपाही मार-काट की मुसीबत
समझता नहीं वो निज़ाम-ए-ज़र की हक़ीकत
समझेगा जिस दिन वो अट्टलिकाओं की बुनियाद का राज़
करेगा एक नयी ज़ंग-ए-आज़दी का आगाज़
तानेगा न बंदूक अपने ही बंधु-बांधवों पर
साधेगा निशाना ताज़-ओ-तख्तों पर
बदल जायेगा राज-पाट का अंदाज़
 धरती पर होगा मजदूर-किसान का राज.
 (हा हा ये तो कविता सी हो गयी. )
(ईमिः23.01.2015)
621
सवाल-दर-सवाल है किसी भी ज्ञान की कुंजी
जवाब-दर-सवाल है हरेक ज्ञान की पूंजी
करो सवाल सबसे अौर सब पर 
नहीं है कोई भी सवालों से ऊपर 
सवाल का पहला सबब है खुद का अदब
खुद पर करो सवाल हो बिल्कुल बेअदब
नास्तिकता का खतरा है मगर सवालों की अनंत कड़ी में  
खो गया ईश्वर सवाल-दर-सवाल की ऐसी ही किसी घड़ी में
करना  होता है सबको खुद-ब-खुद ये चुनाव 
बनना है दानिशमंद या करना परंपरा का बचाव
पूछोगे नहीं गर खुदा-ना-खुदाओं से कोई सवाल 
करना न पडेगा उनको मिथ्याचार का बवाल 
बनना है अगर देश-काल का दानिशमंद
करो न कभी सवालों का सिलसिला बंद
(ईमिः25.01.2015)
622
याद आती है वसंत की वह सुहानी रात
थी जो प्रियतम से पहली मुलाकात
(ईमिः24.01.2015)
623
जानती हो जब रहता नहीं वो अब तुम्हारे शहर में
क्यों वक़्त बरबाद करती हो ढूंढ़ने में उसको 
(ईमिः26.01.2015)
624
प्रेम इतना कि छलक जाये तो बन जाय झूमता दरिया
बह जाय तो उमड़ता सागर
नहीं है दिल में नफरत का नामोंनिशाँ
हां अदावत जरूर है इंसानियत के दुशमन खयालों से
हो जाते हैं वसंत में वसंतमय इस कदर
होती नहीं दरकार सरस्वती पूजने की
ज्ञान का श्रोत है मन की बेचनी
 अौर अादत सवाल-दर-सवाल की
न कि कृपा किसी ज्ञान की देवी की
(ईमिः24.01.2015)
625
संदर्भ इलाहाबदः

चले थे साथ-साथ सब पहन गणवेश
कुछ समा गये काल के गाल में कुछ बन गये देश
एक थे शिवेंद्र शिवेंद्र तिवारी बहुत बड़े बकैत
कहते हैं मार दिया उनको कोई परिचित डकैत
बृंदा मिश्रा थे बाहुबली बहुत सन्नाम
सुनते हैं कोई नहीं उनका लेनेवाला नाम
धीन-धीन करते रहे नेताजी रामाधीन
बन गया बैक डोर से अमितशाह अलाउद्दीन
नेता जी बजा रहे हैं प्रवचनों की बीन
बना दिये गये ये अब कथामंडली के पीठासीन
इतिहास गवाह है अलाउद्दीनों का
साज़िश-ए-क़त्ल जलालुद्दीनों का
पढ़ लें मन से गर मैक्यावली रामाधीन
बन सकते हैं मुल्क के अगले अलाउद्दीन
(अग्रज, Ramadheen Singh से क्षमायाचना के साथ)
(ईमिः25.01.2015)
626
ऋतुओं का सार है का वसंत
प्यार का मौसम है वसंत
चूर करता है ठंड की ठुठुरन की हस्ती
लाता है धरती पर सरसों के  फूलों  की मस्ती
लहलहाती फसलें सूरज की किरणों से
पुलकित अासमान होता खुशियों के झरनों से
वसंत में ही तो अाता होली का त्योहार
करता जो प्यार मुहब्बत का इज़हार
 करते हैं तो करते रहे लोग इस ऋतु को बदनाम
लेंगे ही हम प्यार की ऋतु में प्रियतम का नाम
देखे हैं अब तक कितने ही वसंत 
यादों की जिनके न अादि है न अंत. 
(ईमिः30.01.2015)
627
होता है है प्यार में विचारों का भी मेल
होती नहीं मुहब्बत महज दिलों का खेल
इसीलिये नहीं होती जूता लात की बात
 चूकते नहीं मगर करने से शब्दाघात
 होती रहती जो शब्दों की भिड़ंत
 फ्रायडियन चुम्बकत्व का हो जाता है अंत
 रहता है ऐसी मुहब्बत का सिलसिला अाबाद
 होते हैं विचार जिनकी बुनियाद
होता है इस इश्क में इक त्रिकोण अजीब
 जमाना बन जाता है दोनों का रक़ीब
होता महबूब भी बस इक अज़ीज़ हमसफ़र
साझे सरोकारों पर करते जो जिरह-ओ-बसर
करते हैं इक-दूजे को जब अलविदा
साथ ले जाते हैं मोहक यादों का पुलिंदा.
(ईमिः31.01.2015)
628
मचा लो कुछ दिन और तुगलकी धमाल
करवा लो जितना चाहो बजरंगी बवाल
लेकिन जिस दिन जानेगा मेहनतकश यह हक़ीकत
उसी के खून-पसीने से की पूंजी बनी उसी की मुसीबत
दिखेगी उसे जब विकास के नारे में ढकी साज़िश अपने के विनाश की 
शुरू हो जायेगी गिनती तुम्हारे सत्यानाश की
(ईमिः31.01.2015)
629
फरमाया एक ईश्वर भक्त ने
कि वंचित रहते हैं ईश कृपा से वे
होते  नहीं जो विचलित उसकी अाभा से
देखते नहीं उसे जो उदारता से
यह कैसी सर्वशक्तिमान पुकार
 जिसे इंसानी उदारता की दरकार
नास्तिक करता साहस अलौकिक के पर्दाफाश का
रखता नहीं मोह ईशकृपा की झूठी अास का
साहस करता वो जानने की लौकिकता
अौर नाज़ खुद की समझ पर अमल करने का
ईश्वर-कृपा देती है सकून का उतना भरम
हो जैसे चुनावी वायदों  का कोई मरहम
धरम-जाति है सरमाये की सियासी रोटी-पानी
साधू-साध्वी अब बनने लगे हैं राजा रानी
नकारते हैं जो बातें ईश्वर की मान्यताओं की
समझते हैं वो चालाकी मजहबी अाकाओं की
जानते हैं वे कि होती नहीं कोई अलौकिक हस्ती
होती जिनकी विवेकजन्य प्रमेयों में निष्ठा
चाहिये नहीं उन्हें किसी ईश्वर की कृपा
साहस है जिनमें खुदा को ललकारने का
होता उनका ज़ज्बा कृपाओं को दुत्कारने का
खुदा को नहीं मानने से नाराज़ हो जाते नाखुदा
सुझाते हैं मौत तक नास्तिकता की सजा
 झेलता है नास्तिक खानाबदोश पलायन की यातना
गिरवी मगर रखता नहीं धर्म-मुक्त अपनी चेतना
सुकरात ने दे दी थी जान मगर छोड़ी न सच्चाई
सुकरात की बात फिर गैलेलियो ने दुहरायी
दिदरो अौर वोल्तेयर ने झेला कारावास
तोड़ न सका ज़ज़्बा उनका खुदा का संत्रास
भटकते रहे रूसो तहे ज़िंदगी दर-बदर
छोड़ा नहीं उन्होंने मगर जनपक्ष की डगर
बहुत लंबी है हमारे पूर्वजों की फेहरिस्त
कार्ल मार्क्स हैं जिसकी एक अहम किस्त
झेल लिया उनने अाजीवन देशनिकाला
बदला नहीं मगर कभी नास्तिकता का पाला
करते रहे भगत सिंह खुदा की हस्ती पर प्रहार
लटक रही थी सर पर जब मौत की तलवार
खुद बनाता है अपनी नयी राह नास्तिक
 घिसी-पिटी लीक पर चलता है अास्तिक
नहीं मानता मैं भी किसी खुदा की हस्ती
हो जाये दुश्मन चाहे धर्मांधों की बस्ती
(ईमिः01.02.2015)
630
कहां गये हिटलर हलाकू और नादिर शाह
इतिहास की रद्दी बनेंगे सब बजरंगी शहंशाह
(ईमिः01.02.2015)









No comments:

Post a Comment