Monday, June 10, 2013

बेटी की विदाई पर


बेटी की विदाई पर

ईश मिश्र

बहुत रोया तुम्हारे जाने के बाद बेटू!
जो आंसू गालों को नम किये
और करते रहते हैं गाहे-बगाहे
जब भी याद आती है तुम्हारी कोई ख़ास बात
खासकर वे बातें
जिन पर गर्व होता है मुझे बाप के नाते
और वे भी
जो मुकम्मल दास्ताँ हैं तुम्हारे साथ नाइंसाफियों के
जिन पर शर्म आती है खुद पर बाप होने के नाते
वे भी
जो गवाह हैं तुम्हारी उसूल-पसंद नेक इंसानियत के
जिन पर फक्र है मुझे एक बाप होने के नाते.
कह नहीं सकता इन आंसुओं में
कितना अनुपात
तुम्हारी ज़िंदगी की नई उड़ान की शुरुआत की खुशी के हैं
ऐसी उड़ान गढ़ेगी जो ऊंचाई की नई परिभाषा
और नहीं पहचानेगी किसी आसमान की कोइ सीमा
मगर बनी रहेगी दृष्टि-सीमा में जीवनदायी धरती;
यह भी कह नहीं सकता ठीक ठीक
कि इनमें कितना अनुपात
ऐसी बेटी की विदाई के गम का है
जो एक आवारा बेपरवाह बाप को करती हो
कष्टदायक हद तक प्यार;
इन आंसुओं में कुछ अनुपात तो
एक बाप के फ़र्ज़-फरोशी के अपराध-बोध का भी है
कह नहीं सकता कितना.
                                  २
तुम्हे तो याद नहीं होगा
कि जश्न नहीं मना था तुम्हारे पैदा होने पर
तुम्हारे दादा यानि मेरे पिता ने घोषणा जरूर किया था
कि यह करते और वह करते
लाखों खर्च करते जन्मोत्सव में यदि तुम लड़का होती
                           खुशी से पागल हो गया था मैं
   सुनकर खबर तुम्हारे आने की
और तुम्हारे पास न होने के दुर्भाग्य से मायूस भी
कुछ दिन बाकी थे विश्वविद्यालय से निष्कासन में
मनाना था जश्न एक आवारा के बाप बनने का
खोल दिया था दोस्तों ने चंदे से
पार्थसारथी प्लैटो पर मधुशाला
रात भर हम पीते रहे पिलाते रहे
नाचते रहे और गाते रहे
जानता हूँ कितना नापसंद है तुम्हे जश्न का यह तरीका
जीवन का यथार्थ है किन्तु, विलोमों की द्वंद्वात्मक एकता
जश्न मनाते रहे एक आवारा के बाप बनने का
एक अनजान जान के भविष्य के सपने का
इस मर्दवादी समाज में तुम्हारे आने पर
अनदेखी बेटी के फक्रमंद इस बाप ने
लिखा था तुम्हे एक लंबा ख़त
सम्हाल न सका जिसे तुम्हारे बड़ी होने तक
सोचा था यह अनदेखी बेटी करेगी मेरे कुछ सपने साकार
करेगी मर्दवाद के दुर्ग पर अविरल प्रहार
निकलेगी जब साथ मेहनतकश के
लेकर मुक्ति की मशाल
लगेगा हो गयी हैं सब दिशाएं लाल
शब्दातीत है वह खुशी
हो जाता हूँ अतिशय गदगद
सच होते देख रहा हूँ जब अपनी बातें अब
लोग कहते हैं हो भगत सिंह पैदा लेकिन पड़ोसी के घर 
गर्व होता है देख बेटी को चलते भगत सिंह की राह पर
देखता हूँ जब तुम्हारे जनपक्षीय उदगार  
होता है मुझे तुम पर गर्व अपार
जब भी  कोई छोटा बच्चा देखता
करने लगता तुम्हारी सूरत की अमूर्त कल्पना
आज भी ताजी हैं यादें निज-वंचना के एहसास की
जन्मते ही सर पर न बैठाने के अपराध की
शिशुओं को भी तो होता होगा वंचना का एहसास
तुम्हारी वंचना का था महज कल्पित आभास
जब भी तन्हाई में सोचता था तुम्हारी बात
आती थी टैगोर की ‘काबलीवाला’ कहानी याद
अब लगता है नहीं थी वह तुलना ईमानदार
खोज रहा था शायद आत्म-औचित्य का आधार
रोजी-रोटी के चलते था उसका निर्वसन
मेरा था, अब लगता है, आत्म-चयन
न था शायद खुद पर बाप की भूमिका का भरोसा
दिल बहलाने को करता था जीवन संघर्षों को कोसा
चार साल जो तुमसे दूर रहा
किसी का नहीं सिर्फ मेरा कसूर रहा
यादों में फिल्म की रील सी घूमती हैं हमारी चंद मुलाकातें
बाल-बुद्धिमत्ता की तुम्हारी मासूम बातें 
आँखों से ओझल नहीं होते वे परिदृश्य
 साथ चलते हैं सब शाया सदृश्य
बोलती थी तोतली भाषा में, बहुत छोटी थी तुम
गोद में आते ही मेरे हो जाती थी गुमसुम
यह था शायद एक बच्चे का विरोध प्रदर्शन
शैशव काल में था अभी तुम्हारा विद्रोही मन 
किसी तरह हुआ जब शुरू तुमसे संवाद
बात बढाने को पूंछा था मैंने कौन है तेरा बाप?
तुतलाती भाषा में लिया था तुमने मेरा नाम
मगन होकर बोला, तो मैं हूँ तुम्हारा बाप?
“भप्प” कह कर प्यार से तुमने दिया था डांट
तब न समझा था मैं मर्म एक बच्ची की पीड़ा की
उम्र थी जो बाप के साथ अनवरत क्रीडा की
नहीं देखा ढंग से तुम्हारा बढ़ता बचपन
सोचकर यह बात बेचैन हो जाता है मन
यद्यपि हुईं तुम्हारे बचपन में हमारी मुलाकातें बहुत कम
फिर भी ढेर सी बातें याद आती हैं हरदम
याद है जब भी बीच बीच में घर जाता था
कभी मूंगफली से तो कभी किस्सों से तुम्हे पटाता था
मान जाती थी तुम थोड़ा प्रोटेस्ट के बाद
शुरू होता था फिर तुमसे रोचक संवाद
वह बात तो तुम्हे है याद ही
हवाला देती हो जिसका तुम आज भी
“सिखाओगे जब दो साल की बच्ची को जंग-ए-आज़ादी के गाने
जानते नहीं थे बड़ी होकर रचेगी कैसे अफ़साने”
तुमने कहा था जब सिखाने को गाना
सुना दिया था मैंने इब्न-बतूता का तराना
था याद हो गया तुम्हे वह गीत तुरंत
तुम्हारी जिज्ञासा का नहीं था लेकिन कोई अन्त
मुझे बच्चों का कोई और गाना नहीं था याद
तैयार नहीं थी लेकिन तुम मानने को बात
सुनाया तब मैंने तुम्हे फैज़ की वह इन्किलाबी ग़ज़ल
मांगती है सारी दुनिया पर जो मेहनतकश का दखल
  तभी से गाने लगी वह गीत तुम लहराते हुए हवा में हाथ
सीखी फिर “ये जंग है जग-ए-आज़ादी” की बात
अतीत तो फिर से जिया नहीं जा सकता 
खोया सुख तो कभी पाया नहीं जा सकता
उसकी भरपाई में आओ करें दोनों ऐसा काम
गर्व करें सुनकर जिससे एक-दूजे का नाम 



7 comments:

  1. bahut khoob(soorat)! waise kavitaa jahaan se tukbandi mein dhali hai, uske pahle waalaa hissa zyaadaa pasand aayaa .

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  2. सही कह रहे हैं. तुकबंदी की आदत छूटते छूटते छूटेगी

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  3. अत्यंत मार्मिक काव्य रचना।

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