Rajesh Kumar Singh कुछ सुबुद्धिजीवियों की आँखों पर भगवा जहालत का ऐसा चश्मा लगा होता है की बात कुछ भी हो उनके सर पर नाक्सावाद का भूत सकवार हो जाता है. उन्हें यह भी नहीं मालुम कि 'नक्सली' शब्द सिर्फ दकियानूसी दिमागों में होता है. इस शब्द की व्युत्पत्ति का भी उन्हें ज्ञान हो जाता है जहां भी तर्क और जनपक्ष की बातें करो इन लोगों के सर पर नाक्सालवाद का भूत सवार हो जाता है, यह पता नहीं वे किनसे पूछ रहे होते हैं क्योंकि मुझे तो यहाँ कोइ माओवादी नज़र नहीं आता? मुझे तो उनकी रणनीति से मूल-भूत सैद्धांतिक मतभेद हैं. मैं तो एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय का एक सुविधा संपन्न प्रोफ़ेसर हूँ. इलाहाबाद के अन्य मंचों पर भी मैं यही आग्रह करता रहा हूँ कि पढ़े लिखे लोगन की तरह तथ्यों-तर्कों के साथ बात करें भारतीय राजनीति के नेताओं की तरह हवाबाजी नहीं. एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता होने के नाते हर मासून की मौत चिंता का विषय है.. सीपीआई(माओवादी) नक्सलबाड़ी की विरासत के कई दावेदारों में सिर्फ एक हैं जो भारतीय राज्य के विरुद्ध संघर्षरत हैं. दो युद्धरत समूहों में कौन किसको कितना मारता है वह रक्शाविग्यानियों की समीक्षा का विषय है, मेरा सरोकार नाक्सालवाद के नाम पर कारपोरेट की लूट के लिए मासूम आदिवासियों के जनसंहार और बलात्कार से है. कई कमेंट्स में जहालत का इतना आधारहीन अहंकार दिखता है कि बहस समय की बर्बादी लगती है. विषय है अपराध और दंड नक्सलवाद और लाल-पीला चश्मा नहीं.
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