Wednesday, June 12, 2013

लल्ला पुराण ८७

मनाने की बात पर  बचपन की  एक याद आप लोगों से साझा करता हूँ. गाँव के  संयुक्त परिवार में जो भाई बहन थोड़ा नखड़े करते, रूठते, उनकी खूब मनौव्वल होती, यथा संभव उनकी इच्छाएं भी पूरी की जातीं. मैं इस सुख से हमेशा वंचित रहता था. एक दिन मैंने भी सोचा कुछ मनव्वल का जुगाड़ करूँ. और कोइ बात खोजकर रूठ कर छत पर चला गया. बच्चों को खिलाते हुए माँ ने मुझे भी बुलाया अपनी तरफ से नारागी के अंदाज़ में मैंने कहा, भूख नहीं है. और  ने मान लिया. इसके बाद सबसे अंत में मान-दादी वगैरह खाने जाने लगीं तब फिर माँ ने खाने को पूंछा, भूख तो लगी थी, लेकिन असफल नहीं होना चाहता था, मैंने नाराज़गी का तेवर तेज करते हुआ भूख न होने की बात दुहरा दी. वे लोग भी खाने बैठ गए. ऐसे में भूख ज्यादा ही लग जाती है. अपनी अयिग्यता पर पश्चाताप करते हुए मैंने छत पर खंखारना शुरू किया. दादी ने कहा आओ खा लो. छत से सीधे उतर कर दादी की थाली के पास पहुँच गया.

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