Wednesday, June 19, 2013

लल्ला पुराण ९१

Shailendra Singh हम लोग इस लोकतात्र को तथाकथित लोकतंत्र कहते हैं जिसमें पूंजी की तानाशाही चलती है. हर ५ साल में हम चुनते हैं की शासक वर्ग के दलालों का कौन खेमा उनके लिए हमारा दमन-शोषण करेगा. यह जनतंत्र नागनाथ-सांपनाथ में चुनाव का विकल्प देता है. यह जनतंत्र जनता की सरकार नहीं उसका भ्रम प्रदान करता है, जनता के जनतंत्र के लिए जन-चेतना की दरकार है जो अब बन रही है. Mayank Awasthi मैं कोशिस करके पुराने लेख ल्होजकर स्कैन कर डालने का प्रयास करूंगा. मुख्य मांग समाजवादी आज़ादी थी जो छात्रों ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान हासिल किया था जिसे पूंजीवाद के रास्ते पर अग्रसर नेत्रित्व कम्युनों को विघटित  करके समाप्त कर रहा था और जिसके चलते गूलर का फूल हो चुकी बेरोजगारी/भिखारीपन/वेश्यावृत्ति.... की पुनर्वापसी हो रही थी. छात्रों का आन्दोलन माओवाद के प्रतीकों और नारों का इस्तेमाल कर रहा था.

दिल्ली में १९८४ और २००२ में गुजरात नरसंहार इसलिए इतिहास में बड़े कलंकों के रूप में जाने जायेंगे कि इन्हें राज्य के देख रेख में समाज के लम्पट तत्वों द्वारा अंजाम दिया गया और देश/प्रदेश में लोगों की धार्मिक-साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़का कर फासीवादी किस्म के ध्रुवीकरण के जरिये चुनावी फ़ायदा उठाकर इस तरह के अमानुष कार्यों को वैधता दी गयी. दूसरी बात यह कि कुछ प्यादों को छोड़कर किसी प्रमुख दोषी को कोई सजा नहें मिली, ८४ को बीते लगभग  ३ दशक हो गए. मामला अभी चल ही रहा है. इस फासीवादी साज़िश को रोकने के लिए लोगों को सजग करते रहना है; पाखण्ड और अंधविश्वास; इहलोक-उहलोक जैसी मान्यताओं और चमत्कारी "आत्माओं" के प्रति अटूट श्रद्धा के  वैचारिक श्रोतों और संसाधनों पर लगातार हमले करते रहना है. "अटूट श्रद्धा का आलम यह है कि एक बलात्कारी पाखंडी के पक्ष में उग्र भाव में खड़े हो जाते हैं; और इसे माफी माँगने की सलाह देने वाले अन्य पाखंडी जो पढ़े-लिखे लोगों को जीने की कला सिखाता है, उसके तो सदक्षिणा भक्तों की संख्या और आयाम तो इससे भी कई गुना है. जब तक लोगों का कुतर्क और पाखंड से मोहभंग नहें होगा, इस तरह के मुट्ठी भर लोग उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे.

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