वैसे निजी तो नहीं कुटुंब की निजी संपत्ति सर्वप्रथम पशुधन के रूप में अस्तित्व में आई, दूध-उद्पादन या कृषि में उपयोग के लिए नहीं, आपातकालीन संरक्षित भोजन के लिए. ऋग्वेद के कबीलाई युद्धों में पशुधन की लूट और चोरी का जिक्र मिलता है. उपहार भी प्रायः पशुधन के रूप में ही दिया जाता था . खेती की शुरुआत होने के बाद भी कबीले/कुटुंब के हर सदस्य श्रम करते थे और उदपाद मिल-बांटकर खाते थे. बाद में खेती के औजारों के विकास के साथ (लोहे का आविष्कार आग के ही आविष्कार की तरह क्रांतिकारी आविष्कार था) पारास्परिक सहायता की परम्परा के सन्दर्भ में पारिवारिक श्रम से खेती होने लगी. खेती में निजी संपत्ति का संस्थाकरण अंगरेजी नराज में हुआ. हमारे बचपन तक पारस्परिक सहायता का रिवाज़ जारी था. श्रम से संपत्ति निर्माण का तर्क सत्तरहवीं शताब्दी के दार्शनिक जान लाक ने उस समय दिया जब श्रम से संपत्ति बनाने वाले किसानों और शिल्पकारों को उजाड़ा जा रहहा था और पूरा अंगरेजी समाज श्रम के साधनों से मुक्त मजदूरों और सामंती सत्ता की मिली भगत से उन्ही के श्रम की लूट से संचित पूंजी के बदौलत श्रम के साधनों पर काबिज पूंजीपतियों में ऊर्ध्वाधर विभाजित हो चुका था. असीमित संपत्ति के अधिकार के सिद्धांत के लिए लाक ने संपत्ति के श्रम सिद्धांत का प्रतिपादन किया. मैं कई बार कह चुका हूँ कि पूंजीवाद एक दोगली व्यवस्था है, यह जो कहती है कभी नहीं करती और जो करती है कभी नहीं कहती. निजी संपत्ति की उत्पत्त का संतोषजनक सिद्धांत अठारहवीं सड़ी के आवारा दार्शनिक रूसो ने दिया. "पहला व्यक्ति इन के एक टुकड़े को घेर कर खुद को उअका मालिक घोषित कर दिया और लोग इतने सीधे थे की उसकी बात मान लिए, वही व्यक्ति इस सभ्यता का जनक है."
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment