Saturday, June 15, 2013

लल्ला पुराण ८८

मित्र शैलेन्द्र, आप बातें निजी तौर पर लें. मैं मयंक जी से बिलकुल सहमत हूँ और शशांक की बात शत-प्रतिशत सत्य है कि भ्रष्ट और बेईमान नेता/नौकरशाह/सुरक्षा अधिकारी/थैलीशाह इन्ही शिक्षण-संस्थानों से पढ़े हैं और वे कैसे बनते हैं इसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष शिक्षकों का अहम्  योगदान है. शिक्षा-संस्थान ज्ञान-केंद्र की बजाय व्यवस्था के कल-पुर्जे बनाने वाले कारखाने हैं. शिक्षक नौकरी कर रहा है और शिक्षक होने के महत्त्व से अनभिग्य हो गया है. चूँकि अपराध और दंडनीयता  ताकत की बात हो रही थी इस लिए बात दंडाधिकारी के कर्तव्यबोध पर चली गयी. शिक्षक भी इसी भ्रष्ट समाज से आते हैं और ९९.९% शिक्षकों की नियुक्तिया शिक्षण-इतर योग्यताओं पर होता है. यदि वे शैक्षणिक रूप से भी योग्य हो  तो यह अतिरिक्त योग्यता है. १% संयोगों के योग की दुर्घटना से.(मुझसे जब कोइ मेरे बहुत देर से नौकरी मिलने की बात करता है तो मैं कहता हूँ  सवाल उलटा है, देर से सही मिल कैसे गयी?)बहुत से लुच्चे-लफंगे सभी प्रतितोगी परीक्षाओं से ख़ारिज होने के बाद किसी फादर/गाड फादर की कृपा से गुरु द्रोण बन जाते हैं. वैचारिक भ्रष्टता आर्थिक भ्रष्टता से भी अधिक खतरनाक है. शिक्षकों को आर्थिक भ्रष्टाचार के अवसर कम होते हैं तो वे शेयार्बाजारी/कोचिंग या अन्य क्षेत्रों की दलाली करते हैं. भ्रष्ट अफसरों की ही तरह भ्रष्ट शिक्षकों को भी मैं अभागा मानता हूँ कि मुफ्त में बिकते हैं. इस पर फिर कभी. एक प्रोफ़ेसर/अधिकारी  का वेतन बहुत आराम से महीना गुजारने के लिए पर्याप्त है, पत्नी-पति दोनों प्रोफ़ेसर हों तो टेंसन होना चाहिए की इतने पैसों का क्या करें?  सबसे अधिक सुधार शिक्षा में करने की जरूरत है लेकिन शिक्षा की नीति-निर्धारण पर बाज़ार का कब्जा होने से शिक्षा व्यवसाय बन गयी है और  बनती जा रही है. इस पर विस्तार से फिर कभी लिखूंगा. अभी अपनी बात-चीत एक बार एक चीनी सहयात्री की बात के साथ ख़त्म करता हूँ, "चीन में सिर्फ शीर्षस्थ लोग भ्रष्ट हैं, भारत में सभी", मैं उसकी बात आगे बढाते हुए कहता हूँ की भ्रष्टाचार मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित पूंजीवाद की खामी नहीं है, अभिन्न अंग.

आपके फतावानुमा निजी विशेषणों का शुक्रिया. मित्र, किसी ईश्वर/अवतार/मशीहा/गुरु/ग्रन्थ की औकात नहीं है की मेरी ही तरह उन्मुक्त मेरे मष्तिष्क पर कब्जा कर सके. आप से बिलकुल सहमत हूँ एक बुरे व्यक्ति की शिक्षक पद पर नियुक्ति कई पेधियों के साथ अन्याय है, मैं फासीवादी शिक्षक हूँ या लोकतांत्रिक, इसका निर्णय आप नहीं मेरे छात्र करेंगे. मेरी दृष्टि सीमा में मछली की अंक नहीं पूरी मछली होती है, एक कोण नहें पूरा वृत्त होता है लेकिन शायद दृष्टि-सीमा की सीमाओं के चलते आपको एक अंश का कोण ही दिखता है. देश की अवधारणा के बारे में मेरा कन्फ्य्जन दूर कर सकें तो अति कृपा होगी. देश क्या है?

Mayank Awasthi आपकी बात रह गयी. क्लास न लेने वाले अभागे प्रोफेसरों पर तरस आने चाहिए. पिछले साल इलाबाद गया तो प्रोफेसरों की प्रयागराज कोटो के बारे में पता चला. कुछ प्रोफ़ेसर दिल्ली में रहते हैं और कभी कभी सुबह प्रयागराज से आ जाते हैं और रात वाली से वापस चले जाते हैं. एक ला ले प्रोफ़ेसर से मुलाक़ात हुई जिन्होंने कहा की वे अपनी इज्ज़त बचाने के लिए छात्रों से दूर रहते हैं. मैंने यह कहने से अपने को रोका कि बचाई तो वह चीज जाती है जो हो, जब कमाया ही नहीं तो होगी कहाँ से. दिल्ली विश्व विद्यालय में कईयों को जनता हूँ जो पढ़ाने के अलावा सब कुछ करते हैं. कई बार असमंजस में होता हूँ कि इन तिकडमबाजों का क्लास लेना विद्यार्थियों के हित में है की न लेना. 

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