Wednesday, February 28, 2024

बेतरतीब 171 (बहुजन विमर्श)

प्रमोद रंजन संपादित बहुजन सैद्धांतिकी की पोस्ट पर कमेंटः 

मैं तो बहुत पहले से बहुजन विमर्श को वर्गीय विमर्श के रूप में रेखांकित कर रहा हूं। हर ऐतिहासिक युग में श्रमजीवी ही बहुजन रहा है, भारत में जातिव्यवस्था की जटिलता ने इसे अतिरिक्त जटिल बना दिया है। श्रमविभाजन के साथ श्रमिक विभाजन का मुद्दा पैदा कर दिया है। विचारधारा के परिप्रक्ष्य से शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं। मार्क्सवाद श्रमजीवियों की मुक्ति को ही मानव मुक्ति मानता है, इसलिए मार्क्सवाद आधुनिकयुग की पहली व्यवस्थित सैद्धांतिकी है। यह बात अंबेडकर और मार्क्सवाद (फार्वर्ड प्रेस) लेख में मैंने रेखांकित करने का प्रयास किया है। अपने ब्लॉग में मैंने इसे भाग 1 के रूप में संरक्षित किया है, सोचा था इस पुस्तक के लिए आपसे किये वायदे का लेख भाग 2 होगा लेकिन बौद्धिक आवारागर्दी और अनुशासनहीनता के चलते अक्षम्य वायदा खिलाफी हो गयी और यह काम अनंतकाल के लिए टल गया। बहुजन विमर्श, जैसे कि खगेंद्र जी ने कहा है बहुजन की अवधारणा जातिवादी नहीं वर्गीय अवधारणा है तथा बुद्ध से लेकर मार्क्स तक इसके सैद्धांतिकी की निरंतरता देखी जा सकती है।

पूंजीवाद और भारतीय जाति-व्यवस्था में एक समानता है। दोनों में सबसे नीचे वाले को छोड़कर, हर किसी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल ही जाता है। पूंजीवाद में यह विभाजन आर्थिक है और जाति व्यवस्था में सामाजिक-सांस्कृतिक लेकिन सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक संरचनाएं आर्थिक संबंधों की ही बुनियाद पर टिकी होती हैं।

Saturday, February 24, 2024

शिक्षा और ज्ञान 348(धार्मिकता-सांप्रदायिकता)

 धार्मिकता अपने आप में अवैज्ञानिक तो है लेकिन अपने आप में सांप्रदायिक नहीं है, क्योंकि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है। वैसे धार्मिकता में कट्टरपंथ की संभावनाएं होती ही हैं। हिंदी समाज हिंदू समाज नहीं, हिंदुत्व समाज बनता जा रहा है और हिंदुत्व ब्राह्मणवाद (वर्णाश्रमवाद) की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है। इस चिंताजनक समय में हिंदी के लेखकों से हिंदी समाज को पोंगापंथी बनने से बचाने की अपेक्षा है।

Friday, February 16, 2024

बेतरतीब 170 (जन्मदिन)

 मेरा दस्तावेजी जन्मदिन 3 फरवरी है और सत्य वहीं जिसका प्रमाण हो और प्रमाणित सत्य के अनुसार 3 फरवरी, 2024 को मैं 70 साल का हो गया। इस बात की याद दिलाया था स्टेट बैंक के बधाई संदेश ने। उस दिन यह बात शेयर करना इसलिए टाल गया कि आप लोग यह न सोचें कि साल के कई बार जन्मदिन की बधाई लेता रहता हूं।फेसबुक पर लिखे जन्मकुंडली के जन्मदिन 26 जून को आप पहले ही बधाइयां दे चुके हैं। लगभग 30 साल पहले एक दिन सुबह सुबह जन्मदिन की बधाई का एक फोन आया, मैं चौंक गया। हमारे कॉलेज के तत्कालीन एओ (एडमिन्स्ट्रेटिव ऑफिसर) अरोड़ा साहब का फोन था, जिन्होंने मेरी निजी फाइल से देखकर किया रहा होगा। जन्मकुंडली के जन्मदिन के अनुसार 26 जून 2015 को कुछ पुराने-नए मित्रों के साथ हमने सठियाने का उत्सव मनाया था, लेकिन प्रमाणित सत्य के अनुसार लगभग डेढ़ साल पहले ही सठिया चुका था।


इसकी कहानी यह है कि 1960 में 4 साल की उम्र में बड़े भाई (अब दिवंगत) का लटक बन कर मैं गांव के किनारे स्थित स्कूल जाने लगा। उस समय अमूमन गांव के बच्चे 5-6 साल में स्कूल जाना शुरू करते थे। 1960 इसलिए याद है कि पंडित जी श्यामपट (ब्लैकबोर्ड) पर रोज सुबह तारीख; महीना और सन् लिखते थे।

हमारे खपडै़ल स्कूल में 3 क्लास रूम थे। दरअसल एक कमरे के चारों दीवारों पर बरामदे बने थे। कमरा ऑफिस की तरह था, जिसमें शिक्षकों की कुर्सियां, बच्चों के टाट तथा रजिस्टर तथा अन्य दस्तावेज रखे जाते थे। सामने वाला बरामदा खुला था और उसका इस्तेमाल बरमदे की ही तरह होता था। बगलों और पीछे के बरामदे घिरे थे और क्लास रूम का काम करते थे।

स्कूल में 3 शिक्षक थे और 3 क्लास रूम जब कि विद्यार्थियों की कक्षाएं 6 थीं। एक-एक कमरे में दो-दो कक्षाएं लगतीं थीं। ससे सीनियर शिक्षक (हेड मास्टर) एक कमरे में कक्षा 4 और 5 के बच्चों को पढ़ाते थे; दूसरे में उनसे जूनियर शिक्षक कक्षा 2 और 3 के बच्चों को और सबसे जूनियर शिक्षक गदहिया गोल और कक्षा 1 वालों को। प्रीप्राइमरी क्लास को शुद्ध भाषा में अलिफ कहा जाता था बोलचाल की भाषा में गदहिया गोल। उस समय गांव की संवेदनशीलता कितनी निर्मम होती थी कि अनंत संभावनाओं के नवनिहालों को गधा बना देती थी।

उस समय हेड मास्टर, राम बरन, मुंशी जी थे और उनके बाद बासुदेव सिंह, बाबू साहब थे और सबसे जूनियर, सीतापाम मिश्र, पंडित जी थे। शिक्षकों का संबोधन जातिगत होता था। ब्राह्मण -पंडित जी; ठाकुर -बाबू साहब; भूमिहार-राय साहब, मुसलमान मौलवी साहब और अन्य जातियां -- मुंशी जी। पंडित जी हमारे गांव(सुलेमापुर) के ही थे; बाबू साहब नदी पार के बगल के गांव, बेगीकोल के थे जो दूसरे जिले (तब फैजाबाद अब अंबेडकरनगर) में पड़ता है और मुंशी जी दूसरी तरफ के बगल के गांव, अंड़िका के थे। मुंशी जी पतुरिया जाति के थे। उस समय उस इलाके में पढ़े-लिखे सवर्ण भी कम थे, मुंशी जी पता नहीं कैसे पढ़ गए थे। मुंशी जी बहुत ही नेक इंसान थे, वैसे उन्होंने मुझे पढ़ाया नहीं, जब मैं (1963) कक्षा 4 में पहुंचा तो वे रिटायर हो गए और बाबू साहब हेड मास्टर हो गए और कक्षा 4 और 5 को पढ़ाने लगे। मुंशी जी से मेरी आखिरी मुलाकात 1998 में एक चौराहे पर चाय के अड्डे पर हुई थी, वह कहानी फिर कभी।

भूमिका लंबी हो गयी अब कहानी पर आते हैं। गदहिया गोल में दाखिला के ाद जल्दी ही मुझे अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान हो गया। पंडित जी ने 4 साल के च्चे में क्या देखा कि उसी साल कक्षा 1 में कुदा दिया। कक्षा 2 और 3 में पूरे साल पढ़ाई की। कक्षा 4 में 3-4 महीने पढ़ा था कि स्कूल में डिप्टी साहब (एसडीआई) मुआयना करने आए। गांव के स्कल में डिप्टी साहब का आना बहुत बड़ी परिघटना होती थी। कमरे में जहां कक्षा 5 की टाट खत्म होती थी वहीं से कक्षा 4 की शुरू होती थी। मैं 4 के टाट पर सबसे आगे बैठता था। डिप्टी साहब ने कक्षा 5 वालों से अंक गणित का कोई सवाल पूछा और सब खड़े होते गए। मुझे ताज्जुब हुआ कि इतना सरल सवाल भी इन्हें नहीं आता। सब खड़े होते गए और मेरा नंबर आ गया तथा मैंने झट से सही जवाब दे दिया। डिप्टी साहब ने खुश होकर पीठ थपथपाया तो बाबू साहब कहां पीछे रहने वाले थे, उन्होंने कहा कि अभी तो 'यह 4 में पढ़ता है'। डिप्टी साहब बोल गए कि इसे 5 में कीजिए।

अगले दिन मैं 4 और 5 की टाटों के संगम की बजाय 5 की टाट पर आगे बैठ गया, सबने नापसंदगी की नजर से देखा, लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं। बाबू साहब आते ही मेरे वहां बैठने पर नाखुशी जाहिर की और वापस अपनी पुरानी जगह जाने को कहा। मेरे यह कहने पर कि अब मैं 5 में पढ़ूंगा, बोले ' भेटी भर क बाट्य, अगली साल लग्गूपुर पढ़ै जाबा तो सलारपुर के बहवा में बहि जाबा (लग्गूपुर पढ़ने जाओगे तो सलारपुर का ाहा में बह जाओगे)। मैंने कहा, 'अब चाहे बहि जाई, चाहे बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहन त अ हम पांचै में पढ़ब' (चाहे ह जाऊं चाहे डूब जाऊं, डिप्टी साहब ने कह दिया तो अब में 5 में ही पढ़ूगा)। हमारे गांव से नजदीकी स्कल 7-8 किमी दूर लग्गूपुर में था तथा रास्ते में सलारपुर में खेतों से वर्षात के पानी के निकास का तेज बहाव का नाला (बाहा) पड़ता था।

छोटी सी कहानी भूमिका हुत लंबी हो गयी। तो कहानी यह है कि 1964 में मैंने 9 साल की उम्र में प्राइमरी पास किया और उस समय हाई स्कूल (कक्षा 10) की परीक्षा के लिए न्यूनतम आयु सीमा 15 वर्ष थी। गणना के अनुसार 1 मार्च 1969 को मुझे 15 साल का होना चाहिए। बाबू साहब को 1954 की फरवरी की जो भी तारीख (3) दिमाग में आई उसे मेरी जन्मतिथि बना दिया। टीसी लेते समय मेरे पिता जी फैल गए कि लोग तो 2-3 साल उम्र कम लिखाते हैं और वे मेरी उम्र डेढ़ साल (लगभग) बढ़ाकर लिख रहे हैं, बाबू साहब ने पिताजी को समझा दिय़ा तो वे मान गए।

जो भी मेरे प्रमाणित जन्मदिन की विलंबित बधाई देना चाहें, उनका अग्रिम आभार।

Thursday, February 15, 2024

शिक्षा और ज्ञान 347 (गोदान)

 पूरे 50 साल पहले, हिंदुत्व मार्का दक्षिणपंथ से मार्क्सवादी वामपंथ में संक्रमणकाल में गोदान पढ़ा था, एक ही निरंतरता में पढ़ गया था। इस बार राजपाल एंड संस के स्टाल पर विष्णु नागर (Vishnu Nagar) जी द्वारा संपादित परसाई जी के साक्षात्कारों के संकलन 'परसाई का मन' के विमोचन में तो लेट-लतीफी के चलते समय से नहीं पहुंच सका, इसके साथ अन्य किताबों में गोदान भी खरीद लिया था। पढ़ना शुरू किया तो लगा पहली बार पढ़ रहा हूं। कालजयी रचनाओं को जितनी बार भी पढ़ा जाय, हर बार पहली बार ही लगता है। 2016 में गोर्की का मदर पढ़ते हुए ऐसी ही अनुभूति हुई थी तथा जेएनयू आंदोलन पर लेख की शुरुआत उसी के उद्धरण से किया था। 1974 में गोदान मुझे वर्णाश्रमी सामंती व्यवस्था में किसानी समस्या के साथ स्त्री समस्या पर एक मुकम्मल उपन्यास लगा था। उस समय झुनिया के डायलाग स्त्रीवादी दावेदारी के पूर्वकथ्य लगे थे। फिर से पढ़कर लिखूंगा।

रूसो

 बंद दरवाजे से वापस होकर रूसो दार्शनिक बन गया

बजाय करने के इंतजार दरवाजा खुलने का
वह निकल पड़ा खुले आसमान के नीचे
अनजान रास्तों से
अनजान अमूर्त मंजित की तलाश में
देखने को दीवारों और दरवाजों से आगे की दुनिया
वह पड़ाव-दर-पड़ाव चलता रहा
देखा उसने दीवार-दरवाजे से आगे की दुनिया
जो घिरी थी दीगर दीवारों और दरवाजों से
रास नहीं आई उसे यह नई दुनिया
उसी तरह जैसे उसे अपना न सकी थी उसे पुरानी दुनिया
बुद्ध की तरह तलाशता रहा
दुख-दर्द और पराधीनता से मुक्त दुनिया
उसे सर्वाधिक कष्टप्रद लगती थी पराधीनता
उसने एक ऐसी दुनिया का मॉडल पेश किया
जिसमें पराधीनता शब्द छूमंतर हो जाए
जिसमें राजा-प्रजा की विभाजक रेखा मिट जाए
सब उतने ही आजाद हो जाएं
जितने वे प्रकृति के साम्राज्य थे
तब वे अकेले थे अब अपने सामूहिक राज में
जिसमें किसी को भी पराधीनता का अधिकार न हो
पराधीनता अमानवीय है इसलिए वर्जित

Wednesday, February 14, 2024

मार्क्सवाद 298 (किसान आंदोलन)

 पिछले दिनों यूरोपीय संघ (ईयू) के देशों के किसानों ने ट्रैक्टरों से अन्य देशों की सीमा पार करके ईयू संसद का गेराव किया था, उनपर कोई आंसू गैस नहीं दागा गया, न ही किसानों की धरपकड़ हुई। पंजाब के किसानों को रोकने के लिए जिस तरह सड़कें खोदी जा रही हैं, सीमेंट के ऊंचे-ऊंचे बैरीकेड, कंटीले तार लगाए जा रहे हैं, ड्रोन से उन पर आंसू गैस के गोले दागे जा रहे हैं, सड़कों पर नुकीली कीलें लगाई जा रही हैं, उससे लगता नहीं है कि आंदोलनकारी अपने ही देश के अन्न उत्पादक है बल्कि युद्धरत दूसरे देश केसैनिक हैं, जिन्हें रोकने के लिए सरकार सारी ताकत झोंक रही है।


किसान आंदोलन जिंदाबाद।

Monday, February 12, 2024

शिक्षा और ज्ञान 346 (सामूहिकता)

 एक पोस्ट पर कमेंट:


व्यक्तिवाद पूंजीवाद की आधारभूत प्रवृत्ति है और युग की विचारधारा। पूंजीवाद के पहले की सामूहिकता सामंती थी , जो हम लोगों को विरासत में मिली। सामंती सामूहिकता की विद्रूपताएं उतनी निष्ठुर व अमानवीय नहीं थीं, जितनी पूंजीवादी व्यक्तिवाद की विद्रूपताएं। इतिहास को पीछे, सामंती सामहिकता की तरप नहीं धकेला जा सकता और वह वांछनीय भी नहीं है। समाधान अतीत में महानता ढूंढ़ने में नहीं है, अतीत में महानता की तलाश, अनजाने में, भविष्य के विरुद्ध साजिश है। सामंती सामूहिकता की वापसी की नहीं, जरूरत एक नई समतामूलक जनतांत्रिक सामहिकता की है। समाजवाद में इसी तरह की सामूहिकता प्रतावित है। पूंजीवादी भोंपू के रूप में जब (1992) फुकूयामा ने इतिहास के अंत की अनैतिहासिक घोषणा की थी, मैंने सोसल साइंस प्रोबिंग में उसकी समीक्षा लिखा था, समय मिला तो शॉफ्ट कॉपी बनाकर शेयर करूंगा। इतिहास कभी खत्म नहीं होता, नही विचार खत्म होते, क्रांति-प्रतिक्रांति के दौर चलते रहते हैं। पुराने विचार नए विचारों को जन्म देते हैं, नए विचार अग्रगामी भी हो सकते हैं और अधोगामी भी। प्रकृति और दुनिया द्वद्वात्मक है और इसी द्वंद्वात्मकता की ऊर्जा से बीच-बीच में एकाध यू टर्न लेते हुए, इतिहास आगे बढ़ता रहता है, उसके इंजन में रिवर्स गीयर नहीं होता।

Friday, February 9, 2024

शिक्षा और ज्ञान 345 (दक्षिणपंथ)

 दक्षिणपंथ का ऐतिहासिक मतलब, व्यवस्था के चारण; दकियानूस और संकीर्णतावादीहै। बहुत लोग ऐतिहासिक रूप से विकसित वाम पंथ और दक्षिणपंथ के ऐतिहासिक उद्भव और विकास अनजान लोग ताव में खुद को वामपंथी और दक्षिणपंथी घोषित करने में गर्व महसूस करते हैं। जहां तक 'नॉमचाम्स्की और अरुंधति रॉय जैसे वामपंथी वितारकों द्वावारा यही बात कहने का सवाल है तो सच्चाई की समीक्षा एकाधिक लोग अपनी अपनी भाषा में कर सकते हैं। इतिहास की विभिन्न परस्थियों का तुलनात्मक अध्ययन तो किया ही जा सकता है। जरूरी नहीं है कि सभी फासीवादी शासन इटली और जर्मनी जैसे हों। उनके गुरुत्व में भी फर्क हो सकता है। जर्मन और इटालियन फासीवादों में भी कई आपसी भिन्नताएं थीं। हर तरहके फासीवाद में उसकी स्थानीय विशिष्टतााएं होती हैं। मैंने बहुसंख्यक पर अल्पसंख्यकके खतरे के हौव्वा जैसी फासीवादी प्रवृत्तियों की बात की है।

Thursday, February 8, 2024

बेतरतीब 169 (परसाई)

 

बहुत बहुत मुबारक। मेले से शीघ्र ही 'परसाई का मन' लेकर पढ़ने और समयांतर के लिए समीक्षा लिखने की कोशिश करूंगा।
यात्राओं में, प्रायः, परसाई जी का कोई संकलन ले जाता था, खासकर अपने गांव की यात्रा में। गांव से आते समय किसी हमउम्र लड़के को यह कह कर देकर आता था कि वह और लोगोंको भी पढ़ाए। हर बार किसी को कोई किताब देते हुए यही सोचता था कि अपने लिए फिर खरीद लूंगा, लेकिन पढ़ी हुई किताबं खरीदने की प्राथमिकता में मुश्किल से आती हैं।

शिक्षा और ज्ञान 344 (बहुमत)

 एक पोस्ट पर कमेंट:


फासीवाद संसदीय (बुर्जुआ )जनतंत्र की ही उपपरणामीय उत्पत्ति है। हिटलर और मुसोलिनी इसी रास्ते सत्ता पर काबिज हुए। जर्मनी में गैस चैंबर बनाने वाले पढ़े-लिखे इंजीनियर और वैज्ञानिक थे। फासीवाद की एक विशिष्टता होती है सामाजिक समर्थन आधार जो किसी 'महामानवीय' नेता को अजर-अमर मानता है और दिन-रात भक्तिभाव से उसके भजन गाता रहता है। जर्मनी में यहूदी नामक अमूर्त खलनायक को जर्मनों की दुर्दशा का जिम्मेदार के रूप में साझा दुशमन के नाम पर तैयार किया गया। भारत में ऐसा हिंदू-मुस्लिम के नरेटिव के भजनों से किया जा रहा है। बहुसंख्यक पर अल्पसंख्यक के खतरे का हौवा फासीवाद की एक प्रवृत्ति है। हम लोग अनजाने ही इमर्जेंसी को फासीवाद कहने कि गलती करते थे, जबकि वह अधिनायकवाद था, उसका कोई सामाजिक समर्थन आधार नहीं था। इंदिरा सरकीार के पास लोगों के दमन के लिए राज्य दमनतंत्र ही था। इस अघोषित इमर्जेंसी में सरकारी, सांप्रदायिकीकृत दमनतंत्र के अलावा विहिप, जरंगदल, रामसेना आदि के बजरंगी गिरोहों के अलावा भक्तों की बड़ी पलटन भी है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद नेपोलियन ने बहुमत की हेराफेरी से सत्ता हथियाकर युद्धोंमादी देसभक्ति के जुमलेबाजी से सम्राट बन गया था। 1848 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद लुई बोनापार्ट ने भी यही किया तथा 1851 में संसद भंगकर खुद को सम्राट घोषित कर दिया। तो बहुमत की दुहाई मत दीजिए, बहुमत गलत भी हो सकता है। हमारे छात्रजीवन में बालविवाह जैसी कुरीतियों को बहुमत का समर्थन था। मैं तो सही और साहसी स्टैंड लेने के लिए अक्सर अल्पमत में रहता हूं। नतमस्तक समाज में सिर उठाकर चलने का मंहगा शौक पालने वाले हमेशा अल्पमत में रहते हैं। इसका यह मतलब तो नहीं हुआ कि सिर उठाकर चलने का शौक गलत हेै। लेकिन अन्यायपूर्ण समाज में निजी अन्याय की शिकायत करना वाजिब नहीं। मुझसे इस मंहगे शौक की कीमत दिल्ली विवि मेरी पेंसन रोककर वसूल रहा है। यदि आप निजी अन्याय के शिकार नहीं होना चाहते तो न्यायपर्ण समाज बनाइए। एक पराधीन समाज में निजी स्वतंत्रता एक भ्रम है, वास्तिक निजी स्वतंत्रता पाने के लिए समाज को आजाद करना पड़ेगा। नमस्कार।

शिक्षा और ज्ञान 343 (प्यार)

 यह इलाहाबाद के एक मंच पर प्रेम पर विमर्श मे मेरा एक कमेन्ट:


मैं जब तक यहाँ पहुंचा प्यार के इस संगम पर गंगा-यमुना का काफी पानी मिल चुका और, ऐसा कहने के लिये क्षमा कीजियेगा, महाकुम्भी, सामन्ती धर्मोन्माद गंगा को पर्याप्त प्रदूषित कर चुका. ज्यादातर लोगों के लिये प्यार मर्दवादी वैचारिक वार्चस्व के दायरे मे निर्मित, एक कल्पित, अमूर्त भावना है. सभ्यता मनुष्य के अंदर दोगलेपन का संचार करती है. लोग होते कुछ हैं दिखना कुछ और चाहते हैं; सोचते कुछ हैं, कहते कुछ और हैं; कहते कुछ हैं करते कुछ और हैं. कुछ कमेन्ट दायरे को तोड़ते दिखे कि प्यार दोस्ती है. किसी ने कहा कि प्यार पहले १००% सच्चा होता था अब १०%. उनके पास शायद प्यार की सच्चाई नापने का अंकगणितीय सूत्र हो? प्यार एक गुणात्मक अवधारणा है मात्रात्मक नहीं. जिसे सब कुछ अच्छा किसी कल्पित अतीत में दिखे और भावी पीढियां पतनशील, वह मानसिक जड़ता का शिकार होता है. इतिहास की गाड़ी में बैक-गीयर नहीं होता. पहले प्यार नहीं होता था, शादी होती थी, किशोरावस्था में ही, ताकि वे प्यार-मुहब्बत के दल-दल में न फंस जाएँ, लड़की की खास चिंता थी? रात को सबके सोने के बाद "खूंट" खोलते हुए कमरे में घुसो और भोर से पहले "खूंट" बांधते हुए निकलो. दो अपरिचित किशोर-किशोरी आज्ञाकारी बच्चों की तरह अपनी सेक्सुअल उत्सुकताएं शांत करते थे, और वैचारिक वर्चस्व के भार से दबी लड़की बचपन से सिखाये गए मन्त्र को शब्दशः याद रखते हुए सास-ससुर की सेवा और पति-परमेश्वर की पूजा में एक सम्पूर्ण जीवन की सारी सर्जक संभावनाएं हवन कर देती थी. सहवास (सम्भोग शब्द इस लिये नहीं इस्तेमाल करता कि मूल्यपरक शब्द है जिस पर फिर कभी.) और प्यार को लोग गड्ड-मड्ड कर देते हैं. मुझे तो बहुत बार प्यार हुआ, आज भी है. कई बार तो पता ही नहीं चला कि प्यार है कि दोस्ती? सहवास प्यार की गारंटी नहीं है और प्यार के लिये साह्वास जरूरी नहीं. बहुत पहले, एक बार अपनी एक बहुत ही अच्छी दोस्त को मैंने कहा कि हमारी दोस्ती प्यार नहीं है तो उसने मुझे अवाक कर दिया, "Of course you are in love with me, just that we haven't slept together". एक ईमानदार, नैतिक/बौद्धिक घनिष्ठ मित्रता की गहन भावानात्मक अभिव्यक्ति ही मेरे लिये प्यार है. दोस्ती में पारदर्शक-पारस्परिकता होनी चाहिए. बाकी फिर कभी.

8.02,2013

बेतरतीब 168 (होरहा)

 एक मित्र ने चने के खेत की एक तस्वीर शेयर किया, उस पर कमेंंट:

पहले हमारे यहां चने की खेती अधिक होती थी, पानी न आड़ पाने वाले नदी की कछार के ढलान वाले और ऊबड़-खाबड़ खेतों में भी खूब हो जाता था। हम लोग लगभग रोज ही ही किसी-न-किसी खेत से उखाड़कर, गन्ने की पत्ती की आग में भूंन कर होरहा खाते थे। होरहा के लिए किसी के भी खेत से छोड़ा सा चना उखाड़ने को चोरी नहीं माना जाता था। अब तो लोगों ने चने की खेती बहुत कम कर दिया है। शायद व्यापारिरक दृष्टि से अलाभकाररी हो गया होगा।

Tuesday, February 6, 2024

साफ दिल से थोड़ी दूर साथ चलने से

 साफ दिल से थोड़ी दूर साथ चलने से

 साफ दिल से थोड़ी दूर साथ चलने से
अजनबी अजनबी नहीं रहता

अंतरात्मा की आवाज पर
इंसानियत की खिदमत में
हमसफर बन जाता है
साथ चलते चलते
हमसफरी में निखार आता रहता है
मंजर नायाब दिखने लगते है
और इंकलाब मंजिल बन जाता है।
(ईमि: 07.02.2024)

बेतरतीब 168 (पॉलिकल इकॉनामी)

 आलस्य में मेज पर बैठे-बैठे ब्लैकबोर्ड का इस्तेमाल। पोलिटिकल इकॉनमी की क्सास थी।

इस तस्वीरपर पर एक मित्र (रिटायर्ड प्रिंसिपल) ने मेज पर बैठकर गणित पढ़ाने वाले अपने विद्यालय के एक बुरे शिक्षक का जिक्र किया, उस पर अपना बचाव

मैं तो जब गणित पढ़ाता था, तब खड़ा ही रहता था, क्योंकि गणित में लगातार ब्लैक बोर्ड का काम होता था। यह पोलिकल इकोनॉमी की क्लास थी, यह फाइनल यीयर में एक ऑप्सनल कोर्सहोता था, बहुत कम छात्र यह कोर्स ऑप्ट करते थे। मेज पर बैठकर उन्हें Rise and Growth of Capitalism पढ़ा रहा था, बीच में मुद्रा के पूंजी में तब्दीली समझाने के लिए C-M-C सर्किट के M-C-M ( C is commodity; M, money) Circuit में तब्दीली का डाइग्राम बनाना था। बोलने का प्रवाह बरकरार रखने के लिए, हाथ पहुंचने की दूरी पर ब्लैक बोर्ड था तो गर्दन थोड़ा मोड़ कर बैठे-बैठे ही डाइग्राम बना दिया। पहली सर्किट में एक उत्पादक ( मान लीजिए मुर्गी पालक) अपनी अन्य जरूरतों (मान लीजिए गेंहूं), एक मुर्गी लेकर बाजार जाता है और उसे बाजार भाव पर (मान लीजिए 100 रु) में एक व्यापारी को बेच देता है और दूसरी दुकान से बाजार भाव पर (मान लीजिए 25 रु किलो) में 4 किलो गेंहूं खरीद लेता है। यही गेंह का उत्पादक भी करता है, गेंहू बेचकर जरूरत की दूसरी चीजें खरीदता है। पैसा उसके पास टिका नही। एक हाथ से आया और दूूसरे हाथ से चला गया। पैसा दो उत्पादों के बीच बिचौलिए का काम करता है। और व्यापारी दो उत्पादकों का बिचौलिया। M-C-M Circuit में मामला उलट जाता है। एक व्यापारी कुछ पैसै( M )लेकर जाता है और सामग्री C (कच्चा माल और श्रमशक्ति) खीदता है और श्रम के इस्तेमाल से C को C' में तब्दील कर देता है जिसे M' में बेचकर M'--M मुनाफा कमाता है। यह मुनाफा उत्पादन प्रक्रिया में मजदूरों के मेहनाताना से अधिक श्रम शक्ति (surplus labour) का उत्पाद जिसे हड़पकर व्यापारी दो उत्पादकों के बिचौलिए की भूमिका से निकल कर पूंजीपति बन जाता है और पैसा दो उत्पादों के बिचौलिए की भूमिका से निकलकर पूंजी।

Monday, February 5, 2024

मोदी विमर्श 111 (संसद में चुनावी जुमलेबाजी)

 संसद देश की समस्याओं पर विधिक विचार-विमर्श का मंच है, मोदी जी ने उसे चुनाव प्रचार का मंच बना दिया और दावा किया कि अगले संसदीय चुनाव में एनडीए को 405 सीटें मिलेंगी और भाजपा को 370। यदि यह चुनावी जुमलेबाजी नहीं है तो आम सहजबोध (कॉमन सेंस) वाले आम आदमी (कॉमन मैन) को तो यही लगेगा कि इतनी सीटों के ईवीएम दुरुस्त किए जाएंगे।

वानप्रस्थ आश्रम

 उम्र की मार से अजलस्त और पस्त हो चुके लोगों के लिए

उम्र की मार से अजलस्त और पस्त हो चुके लोगों के लिए
हमारे यहां वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था है

वृद्धाश्रम उसकी का आधुनिक संस्करण है
शास्त्रों में जीवन के हर पड़ाव का इंतजाम है
उत्पादकता घट जानेपर सन्यास आश्रम की व्यवस्था है
वे जब बिल्कुल हीअनुत्पादक हो जातेहैं हमारे बुजुर्ग
और मांगते हैं सेवा-सुश्रुषा
शांति से एकांत में मरने के लिए
शास्त्र सम्मत वानप्रस्थ्य आश्रम की व्यवस्था का
सम्मान करते हुए वे स्वेच्छा से जंगल चले जाते हैं
उसी तरह जैसे युवा विधवाएं स्वेच्छा से सती हो जाती थीं। (ईमि: 06.02.2024)

Sunday, February 4, 2024

चमकदार चेहरों के पीछे बदबूदार इरादे होते हैं

 चमकदार चेहरों के पीछे बदबूदार इरादे होते हैं

चमकदार चेहरों के पीछे बदबूदार इरादे होते हैं

लेकिन जैसा कि यूरोप के नवजागरण काल के
कालजयी दार्शनिक मैक्यावली ने सही कहा है
जनता होती है सीधे-सादे लोगों की महज एक भीड़
सच की तहकीकात करने के पचड़े में नहीं पड़ती
जो दिखता है, उसी को ही सच मान लेती है
और जब जनता भक्तिभाव से राजा का भजन गाए
तो करते रहें सच का अनुसंधान ज्ञान-मानी
उनकी बात नक्कारखाने के शोर में दब जाती है
इसीलिए जरूरी है जनता का भक्तिभाव से मोहभंग
तभी होगा जनता में वर्गचेतना का संचार
खोजेगी जो खुद धोखा-धड़ी और छल का उपचार।
(ईमि: 05.02.2024)

Saturday, February 3, 2024

सत्योत्तर युग में

 सत्योत्तर युग में

सत्योत्तर युग में
कुछ नहीं होना ही
सब कुछ होना होता है
और कुछ भी होना कुछ नहीं
निरर्थक माना जाता है निर्माण
और विध्वंश निर्माण होता है
यानि नया अर्थ अख्तियार करते हैं
जाने-पहचाने शब्द
निर्माण का मतब विध्वंश हो जाता है
और विनाश का विकास
पुनर्लेखन के नाम पर
विकृत किया जाता है इतिहास
और जो कभी नहीं हुआ होता
वह इतिहास बन जाता है
सत्योत्तर युग में
कुछ नहीं होना ही
सब कुछ होना होता है
(ईमि: 04.02.2024)

Thursday, February 1, 2024

मार्क्सवाद 297 (नवब्राह्मणवाद)

 एक पोस्ट पर एक कमेंट


मैंने तो 12-13 साल की उम्र में जनेऊ तोड़कर बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया, लेकिन कई लोग कई बार, बातों का तार्किक जवाब न होने से मेरी बात में ब्राह्मणवाद ढूंढ़ लेते हैं। अहिर या भुँइहार से इंसान बनना उतना ही जरूरी है, जितना बाभन से इंसान बनना। ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है, जन्म के आधार परव्यक्तितव का मूल्यांकन, ऐसा करने वाला जन्मना अब्राह्मण ब्राह्मणवाद की पूरक नवब्राह्मणवाद विचारधारा का पोषक है। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में दोनों ही एकसमान गतिरोधक हैं। जातिवाद की समस्या का समाधान जवाबी जातिवाद नहीं, है, जाति का विनाश है, जो कि डॉ. अंबेडकर की किताब का शार्षक है। असमानता का समाधाम जाबी असमानत नहीं, समानता है।