एक मित्र ने कहा कि इलाहाबाद से दिल्ली जाकर मैं हिंदू धर्म त्यागकर वामपंथी हो गया। उस पर :
एक प्रामाणिक नास्तिक के रूप में मैंने हिंदू धर्म का नहीं, धर्म का त्याग किया और इलाहाबाद से पढ़ कर दिल्ली जाकर नहीं मेरी नास्तिकता की यात्रा इलाहाबाद में पढ़ते हुए ही पूरी हुई। मैं एबीवीपी का जब नेता था तो नास्तिक हो चुका था। सावरकर और जिन्ना की ही तरह मैं धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्मेन्मादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है। पुस्तकों और आंदोलनों में शिरकत के जरिए सांप्रदायिकता से मोहभंग हुआ और सवाल-दर-सवाल की द्वंद्वात्मक पद्धति अपनाने के चलते मार्क्सवादी बना। नास्तिकता में मनुष्य हिंदू-मुसलमान या किसी विशिष्ट धर्म का त्याग नहीं करता बल्कि किसी अलौकिक सर्वशक्तिमान की अवधारणा के निषेध के चलते धर्म का त्याग करता है। मनुष्य ईश्वर की रचना नहीं है, बल्कि ईश्वर की अवधारणा खास ऐतिहासिक संदर्भ में मनुष्य की रचना है, इसीलिए देश-काल के लिहाज से उसका स्वरूप और चरित्र बदलता रहता है। इसीलिए अपनी ऐतिहासिक उत्पत्ति के आधार पर अल्लाह, भगवान और गॉड अलग अलग हैं। पहले ईश्वर असहाय और निर्बल की सहायता करता था अब सोसल डार्विनवाद के सिद्धांत का अनुशरण करते हुए सक्षम की सहायता करता है।(God helps those who help themselves) जनपक्षीय परिवर्तन का हिमायती होने के चलते वामपंथी हूं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से जनपक्षीय परिवर्तन की पक्षधरता ही वामपंथ है। सादर।
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