विरोध प्रदर्शन में हिंसा और तोड़-फोड़ आंदोलन की समझ की कमी और राजनैतिक अपरिपक्वता की परिचायक तो है ही, आत्मघाती भी होती है। किसी भी आंदोलन की सार्थकता के लिए आक्रोश को राजनैतिक रूप से अनुशासित करना आवश्यक है। जेएनयू आंदोलन में मंडी हाउस से संसद मार्च में लगभग 15 हजार लोगों ने शिरकत की थी, लेकिन किसी भी प्रकार की तोड़-फोड़ नहीं हुई। आंदोलन के अनुशासन का मेरा पहला अनुभव लगभग 45 साल पुराना है। मैं इलाबाद विवि के आंदोलनों का अनुभव लेकर जेएनयू आया था। इलाहाबाद में छात्रों के किसी भी जुलूस में थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़ तो होती ही थी। 1974 में एक जुलूस में रास्ते में मिलने वाले वाहनों को जलाते, तोड़-फोड़ और लूट-पाट करते सिविल लाइन्स पहुंच कर लकी स्वीट मार्ट नामक मिठाई की बड़ी दुकान में बुरी तरह तोड़-फोड़ और लूट-पाट हुई, इन सबसे मन इतना खिन्न हुआ कि वहीं से वापस लौट आया था। 1977-78 में जनता पार्टी की सरकार के समय जेएनयू के छात्रों ने डीटीसी के किराए में बढ़ोत्तरी के विरुद्ध आंदोलन किया। छात्रों का तो साढ़े बारह रुपए में मासिक आलरूट पास बनता था, लेकिन जेएनयू स्व के स्वार्थबोध पर स्व के न्यायबोध (परमार्थबोध) को तरजीह देना सिखाता है। आंदोलन लंबा चला था छात्र-छात्राओं ने पुलिस की लाठियां खाई और हिरासत में भी रहे। उस समय जेएनयू बहुत छोटा(6 हॉस्टलों में सिमटा) था लेकिन अंततः सरकार को किराया वृद्धि वापस लेना पड़ा था। जिस बात के लिए यह लिखना शुरू किया वह यह है कि आंदोलन के दौरान कुछ बसों का अपहरण किया गया जिनकी रखवाली के लिए कुछ जिम्मेदार छात्र तैनात थे कि कहीं कुछ असामाजिक तत्व आंदोलन को बदनाम करने के लिए बस को छति न पहुंचाएं और ड्राइवर-कंडक्टरों को ससम्मान कैंटीन में चाय पिलाया गया। उन मजदूरों से हमारी लड़ाई नहीं थी और स्ार्वजनिक संपत्ति का नुक्सान अपना ही नुक्सान था, आंदोलन के चरित्र में यह फर्क सुखद आश्चर्यजनक था।
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