Wednesday, June 15, 2022

शिक्षा और ज्ञान 373 (सांप्रदायिकता)

 पूरा समाज विषाक्त हो चुका है, अपनी सांप्रदायिक विद्रूपताएं हम अपने बच्चों के दिमागों में भरते जा रहे हैं। हमारी सोसाइटी भारत सरकार के अधिकारी/कर्मचारियों की सोसाइटी है। ज्यादातर निवासी सेवा निवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं, सोसाइटी के अंदर शॉपिंग कांप्लेक्स के पीछे एक विशाल मंदिर परिसर है, पता नहीं पहले से है या सोसाइटी बनने के बाद बना। मुख्य गेट के पास सोसाइटी के ऑफिस के साथ लगा पानी की भूमिगत टंकी के ऊपर बड़ा सा सीमेंटेड पार्क है, केंद्र सरकार के एक सेवारत अधिकारी 5-15 वर्ष के बच्चों को जुटाकर शाखा लगाते हैं। प्लेटो अपने शिक्षा सिद्धांत में कहता है कि बच्चों की शिक्षा पैदा होते ही शुरू हो जानी चाहिए क्योंकि उस उम्र के बच्चे मोम की तरह होते हैं उन्हें मनचाहा आकार दिया जा सकता है। और तीन चरणों में विभक्त प्रारंभिक शिक्षा में उन्हें मुख्यतः व्यायाम और संगीत सिखाया जाना चाहिए यानि फौजी मानसिकता तैयार की जानी चाहिए। शिशु स्वयंसेवक से बाल स्वयंसेवक, किशोर और तरुण स्वयंसेवक के प्रशिक्षण की मंजिलें पार कर 'संघ के संस्कार' से सुसज्जित व्यक्ति सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को भारतीयता मानने लगता है। अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में चुटिया रखने का रिवाज बढ़ता जा रहा है। सोसाइटी के कुछ दलित सेवा निवृत्त अधिकारी हैं वे अपने व्यक्त आचरण में सवर्णों से भी अधिक हिंदुत्ववादी हैं।


हमें इसी समाज में रहना और इसे बदलने में अपना संभव योगदान देना है, हमारी (प्रगतिशील, जनतात्रिक ताकतों) की लापरवाही और प्रतिक्रियावादी ताकतों की चतुराई से समाज विषाक्त हो गया है, सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा में अपना हर संभव योगदान देकर हमें इसकी मुक्ति का प्रयास करना है। सांप्रदायिकता और जातिवाद की मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति इसकीआवश्यक शर्त है।

1 comment:

  1. समाज को बांटने का काम तो हिंदू-मुसलमान और आरक्षण के नरेटिव के भजन से समाज को विषाक्त कर अपने जन्म से ही तालिबानी और बजरंगी फिरकापरस्त फैला रहे हैं। मंडल के लाभार्थी वर्ग आसानी से दंगे में बजरंगियों द्वारा इस्तेमाल होते हैं उसके बाद वह उन्हें मुफ्तखोर कह कर दुत्कारता है। बेशर्मी से संघी मूलतः अफवाह और झूठ फैलाता है, कौन कम्युनिस्ट बोल रहा था? शाखा का अफवाहबाजी के प्रशिक्षण का पाठ छोड़कर कभी तो तथ्यपरक पत्रकारिता करिए। मैं तो किसी पार्टी में नहीं था और ब्राह्मणीय स्वार्थबोध से ऊपर उठकर शुरू से ही परमार्थबोध से मंडल का समर्थन कर रहा था, ज्यादातर सवर्णों में स्वार्थबोध से ऊपर उठने का साहस नहीं होता और सरकारी नौकर न बन पाने की अपनी असफलता का ठीकरा आरक्षण पर फोड़कर आरक्षण के लाभार्थियों की अवमानना करते हैं।

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