अर्थ ही मूल है, हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज में सांप्रदायिक विषवमन सांप्रदायिक राजनीति में चुनावी ध्रुवीकरण के लिए जरूरी है और अरब की राजशाहियों के समक्ष नतमस्तक होना पेट्रो-डॉलर की जी-हुजूरी की मजबूरी। नूपुर शर्मा का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी फायदे के उद्देश्य से समाज को सांप्रदायिक नफरत से प्रदूषित करने के लिए किया गया और अरब आकाओं की जी हुजूरी में उनकी बलि दे दी गयी। जब तक लोग धर्मांधता की भावनाओं में बहते रहेंगे चतुर-चालाक मजहबी कारोबार के सियासतदां उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे।
प्रकारांतर से नूपुर शर्मा प्रसंग की एक पोस्ट पर कट्टरपंथियों के एकसमान होने के एक कमेंट के जवाब में एक मित्र ने कहा कि बंदर तथा पेड़ पौधों को पूजने वाला तथा नाग को दूध पिलाने वाला हिंदू कभी कट्टरपंथी हो ही नहीं सकता, उसका कट्टरपंथ प्रतिक्रियात्मक मजबूरी है, उस पर:
धार्मिक मिथ्या चेतना की अफीम की खुमार में हर धार्मिक को अपने धर्म के बारे में ऐसा ही लगता है, सभी अपने अपने धर्म के बारे में ऐसे ही तर्क-कुतर्क करते हैं तथा अपने घृणित कुकर्मों का औचित्य साबित करने के लिए क्रिया-प्रतिक्रिया का ऐसी ही शगूफेबाजी करते हैं, जैसा कि अटल बिहारी बाजपेयी ने 2002 में गुजराज के भीषण नरसंहार और सामूहिक बलात्कार के औचित्य के लिए किया था। ईमानदारी से इतिहास पढ़ने की जरूरत तो सांप्रदायिकता के जहरीले नशे में चूर सांप्रदायिकता के झंडबरदारों को है, जिसके लिए जरूरी है शाखा के बौद्धिक में सिखाए अफवाहजन्य इतिहासबोध से मुक्त होकर , आंखों से सांप्रदायिक मिथ्याचेतना की पट्टी हटाकर, जीववैज्ञानिक संयोग से मिली हिंदू-मुसलमान की अस्मिता से ऊपर उठकर सांप्रदायिक अंधभक्त से विवेकशील इंसान बनना। इसके लिए जरूरी है साहसिक आत्माववलोकन और आत्मालोचन। वर्षों की शाखा की फौजी ड्रिल से दिमाग की स्वतंत्र चिंतन के की जगह अनुशरण की आदत से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन आसान काम तो सब कर लेते हैं। जब बाल-किशोर स्वयंसेवक था तब मैं भी आपकी ही तरह सोचता था तथा शाखा में पिलाई गयी नफरती संस्कारों की घुट्टी के नशे से मुक्त होने के लिए भीषण आत्मसंघर्ष करना पड़ा। प्लैटो अपनी शिक्षा सिद्धांत के पाठ्यक्रम में कहता है कि बच्चों की शिक्षा जन्म से ही शुरू कर देनी चाहिए क्योंकि शिशु-बाल्यावस्था में व्यक्ति मोम की तरह होता है, उसे जैसा आकार चाहें दिया जा सकता है। दिमाग को स्वच्छंद वितरण से रोकने कर अनुशरण के रास्ते पर डालने तथा फौजी ढर्रे पर आज्ञापालन-अनुशरण की आदत के संचार के लिए प्रारंभिक शिक्षा (0-18 वर्ष) के पाठ्यक्रम में केवल व्यायाम और संगीत रखता है। आरएसएस के संस्थापक विचारों ने जाने-अनजाने प्लैटो के शिक्षा सिद्धांत को अपनाते हुए शिशु स्वयंसेवक से ही सांप्रदायिक विषवमन की फौज तैयार करने की योजना बनाया। शैशव काल से शुरू कर वयस्क होने तक पिलाई गई घुट्टी का मन-मष्तिष्क पर असर इतना गहरा होता है कि वह अफवाहजन्य इतिहासबोध को ही सत्य के रूप में आत्मसात कर लेता है और कभी आत्मावलोकन और आत्मालोचना का साहस ही नहीं कर पाता। वह दूसरों को नहीं छलता बल्कि आत्मछलावे का शिकार होता है, वह जो कहता है, स्वयं भी उसी को सत्य मानता है। मेरे बाबा (दादा जी) दूसरों को ही ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर किसी काम का शुभ मुहूर्त नहीं बताते थे बल्कि खुद भी उसे ही अंतिम सत्य मानते थे। मेरी आठवीं (जूनियर हाई स्कूल) की परीक्षा का केंद्र नदी के बीहड़े से होते हुए ऊबड़-खाबड़ रास्ते से 20-25 किमी दूर पड़ा था। सुबह 7 बजे की परीक्षा के लिए रात 12 बजे की साइत (मुहूर्त) थी। आधी रात को अपने 12 वर्षीय पोते को लेकर परीक्षा केंद्र पहुंचाने निकल पड़े। शाखा प्रशिक्षित स्वयंभू राष्ट्रभक्त (उसे राष्ट्रवाद की परिभाषा ही नहीं मालुम होती) सांप्रदायिकता को ही राष्ट्रवाद मानता है और साम्प्रदायिक विषवमन को राष्ट्र सेवा क्योंकि इसे ही वह वर्षों के प्रशिक्षण में अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेता है। सादर। कृपया इसे खास अपने ऊपर न लें। मैंने भी सार्वजनिक जीवन में शाखा के माध्यम से प्रवेश किया था तथा आत्मसात किए सांप्रदायिक अंतिम सत्य की मिथ्या चेतना की मुक्ति के लिए पढ़ाई-लिखाई के अलावा विकट आत्मसंघर्ष करना पड़ा, ऐसा न करता तो भौतिक सुख-सुविधाओं के अर्थ में आज बहुत बेहतर स्थिति में होता। लेकिन जैसा बोएंगे वैसा ही काटेंगे। मेरी बड़ी बेटी ने अपनी ऐसी ही किसी बात पर हास्यभाव में कहा था कि बबूल बोओगे तो आम कैसे तोड़ोगे? 2 साल की बच्चे को जंग है जंगे आजादी जैसे गीत सिखाते थे तो जानते नहीं थे कैसी होगी? इस प्रसंग की चर्चा फिर कभी।
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