Friday, June 10, 2022

बेतरतीब 131 (सत्यनारायण कथा)


बेतरतीब 131 (सत्यनारायण कथा)

1970 की बात है, 15 साल का था, गर्मियों की छुट्टी में घर आया था। बाग के किनारे कुँए की रहट के पास बाबा (दादा जी) की कुटी के ओसारे में लेटा इब्ने शफी बीए का कोई उपन्यास पढ़ रहा था, रहट चल रही थी। मीरपुर (गांव की एक दलित बस्ती) के कुबेर दादा पैलगी कर रहट के हौज के मुहाने से हाथ-मुंह धोकर, पानी पीकर चिंतित मुद्रा में बैठ गए। पता चला कि शहर में मजदूरी करने वाले बच्चों की मदद से नया कच्चा घर बनवाए हैं और उसमें रहना शुरू करने के पहले उसमें सत्यनारायण की कथा सुनना चाहते हैं लेकिन पंडित जी काली माई के थाने ही सुनने को कह रहे हैं। मैंने कहा चलिए मैं कह देता हूं। पुरोहिती करने वाले पंडितजी (छांगुर दादा) के पोते से कथा की एक पोथी और शंख लेकर उनके घर कथा कहने चला गया। तभी पता चला कि इसमें कथा तो सुनाई ही नहीं जाती, पोथी में तो कथा सुनने के फायदे और वायदा करके न सुनने के नुक्सान की ही बात है। खैर कुबेर दादा और उनके परिवार के आस्था की बात थी। जब हवन करने की बारी आयी तो जो भी मन में आया स्वाहा कर दिया। दक्षिणा बच्चों में बांटकर 4-5 किमी दूर मिल्कीपुर चौराहे पर अड्डेबाजी करने चला गया, गांव के सब लोग बहुत नाराज, मेरे बाबा गुस्से में ढूंढ़ रहे थे, देर शाम को वापस घर आया तो उनका गुस्सा शांत हो गया था। एक हमउम्र कुटुंबी ने बाबा को बताया कि मैं आ गया था तो उन्होंने कहा पागल है कुछ भी कर सकता है। 

गांव के दलित के घर जाकर कथा बांचने की यह घटना कई दिनतक मेरे और बगल के 2-3 गांवों में चर्चा और निंदा का विषय बना रहा। हमारे पुरवा में छांगुर दादा ही पुरोहिती करते थे, उन्हीं के अपने हमउम्र पोते से पोथी मांगकर ले गया था। क्रोध में बोले 'तुम्हें कथा बांचने का अधिकार नहीं हैं', मैंने कहा था कि अब तो बांच दिया। पोथी अपवित्र करने की बात करने लगे तो मैंने कहा कि उनके पास तो तो बहुत पोथियां हैं। मेरे बाबा ने बचपन में मेरा नाम पागल रख दिया था, कुछ भी असामान्य (अच्छी) बात होती तो कहते कि पगला ने किया होगा। 1975 में गवन बाद जब मेरी पत्नी आईं तो बाबा द्वारा मेरे लिए बार बार पगला का संबोधन सुनकर उन्हें लगा कि कहीं धोखे से उनकी शादी किसी पागल से तो नहीं हो गयी थी और अपनी शंका के समाधान के लिए उन्होंने अइया (दादी जी) से पूछ ही लिया। अइया के पहले पास बैठी माई ने मेरे 'सोझवापन' के हवाले से उनकी शंका का समाधान करने की कोशिस की थी। खैर तब तो उन्हें संदेह भर था जब साथ रहने लगे तो उन्हें विश्वास हो गया।

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