Wednesday, June 15, 2022

मार्क्सवाद 268 (हिंदू-मुस्लिम)

 एक मित्र ने लोगों को धरे जाने से बचने के लिए हिंदू-मुस्लिम नरेटिव का नफरती एजेंडा चलाने से परहेज करने की सलाह दी है।


उस पर:

धरे जाने के अलावा बौद्धिक (पढ़े-लिखे) 'समुदाय' का सदस्य होने के नाते भी हमारा कर्तव्य है कि समाज को जोड़ें, तोड़ें नहीं, सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और मिथ्या चेतना से मुक्त होकर, हिंदू-मुस्लिम के नफरती नरेटिव के एजेंडे से ऊपर उठकर समाज में इंसानियत और सौहार्द बढ़ाएं; कठमुल्लेपन की अधोगामी सोच की जगह वैज्ञानिक सोच बढ़ाएं। हर देश-काल में शासक वर्ग लोगों को बनावटी और गौड़ अंतर्विरोधों में उलझाकर मुख्य (आर्थिक) अंतर्विरोध की धार कुंद को कुंद करता है, हमें शासक वर्गों की इस चाल का मुहरा होने से बचना चाहिए। गौरतलब है कि आधुनिकता के ध्वजवाहक के रूप में यूरोप के विकास की बुनियाद वहां की नवजागरण (Renaissance) और प्रबोधन (Enlightenment) बौद्धिक क्रांतियां रही हैं, जिनकी धार कुंद करने के लिए अस्त होते शासक वर्गों (सामंतवादी) ने लोगों को धार्मिक अंतर्विरोधों में उलझाए रखने का प्रयत्नकिया तथा धर्म के नाम पर भीषण रक्तपात की दरिया में धकेल दिया। वह दो अलग अलग धर्मोे के अलग अलग भगवानों के भक्तों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक ही धर्म (ईशाइयत) के एक ही ईश्वर के दो तरह भक्तों (कैथलिक और प्रोटेस्टेंट) की लड़ाई थी। शासक वर्गों की पूरी कोशिस के बावजूद अंततः इतिहास आगे ही बढ़ा और आधुनिकता की मध्ययुगीनता पर जीत हुई। ऐतिहासिक परिघटनाओं की व्याख्या के स्रोत के रूप में धर्मशास्त्रीयता को वैज्ञानिकता ने प्रतिस्थापित किया , जिसने परंपर की जगह विवेक को स्थापित किया। इतिहास आसमान से रिरकर खजूर पर अटक गया। सामंती गुलामी की जगह पूंजी की गुलामी ने ले लिया। श्रम-शक्ति युक्त उत्पादक श्रम के साधनों से मुक्त होकर श्रम-शक्ति बेचने को 'स्वतंत्र' हो गया; वह 'बाजार भाव' पर श्रम शक्ति बेचने को ही नहीं, न बेचना चाहे तो मरने को भी स्वतंत्र है। पूर्ववर्ती वर्ग समाजों की ही तरह पूंजीवाद भी कथनी-करनी में विरोधाभास वाली एक दोगली व्यवस्था है, यह जो कहती है, करती नहीं और जो करती है, कहती नहीं। पूंजीवाद में आजीविका के लिए हम श्रमशक्ति बेचने (alienated labor करने) को अभिशप्त हैं और यह अभिशाप को स्वतंत्रता बताती है। नवोदित शासक (पूंजीवादी) वर्ग ने नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों से उपजी वैज्ञानिकता का औजार के रूप में इस्तेमाल कर ुदारवादी से नवउदारवादी चरण तक पहुंची तथा वैज्ञानिकता इसे बेड़ियां लगने लगी और इसने वापस धार्मिक कठमुल्लेपन पर आधारित प्रतिक्रियावाद को औजार बना लिया। अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के समय युद्ध विरोधी प्रदर्शन में हम लोग नारे लगा रहे थे, 'बिन लादेन अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है';..... ।

लेकिन इतिहास गवाह है कि इतिहास अंततः आगे ही बढ़ता है, इसकी गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता। वह कभी कभी आज के अंधे दौर की तरह यू टर्न ले लेता है, लेकिन अंततः जीत कठमुल्लेपन पर वैज्ञानिकता की ही होगी, हमारे जीवनकाल में, हमारे हाथों नहीं तो हमारी नतिनियों के जीवनकाल में उनके हाथों होगी। आइए, विघटनकारी नफरती एजेंडा छोड़कर, हम मानवता की सेवा में सहयात्री बनने का एजेंडा सेट करें।

सादर।

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