जब (1972 में)हम इलाबाद विवि में आए तो युवामंच नामक एक सांस्कृतिक ग्रुप संस्कृति-साहित्य की गतिविधियों में बहुत सक्रिय था। एक अनिश्चितकालीन पत्रिका, परिवेश निकालते थे। कविवर रवींद्र उपाध्याय (दिवंगत); देवी प्रसाद त्रिपाठी[डीपीटी] 'वियोगी' (दिवंगत) विभूति नारायण राय, कृष्ण प्रताप सिंह (दिवंगत), अनीश खान, रामजी राय और प्रसाद जी (नाम भूल रहा है) इस ग्रुप के प्रमुख लोगों में थे। कृष्ण प्रताप जी उप्र पुलिस सेवा में थे और पुलिस वालों ने ही उनका एनकाउंटर कर दिया था। केपी भाई गोंडा में डीएसपी थे, नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने की ही तरह भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदारी की सनक मंहगा शौक है।1982-83 की बात होगी, जेएनयू में यह दुखद खबर सुनी थी। गोंडा में कार्यरत थे और कुछ अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस टीम के साथ छापा मारने गए और उनके अधीनस्थ पुलिसियों की अपराधियों से मिलीभगत थी जिन्होंने उनकी हत्या कर दी। उस समय उनकी बडी बेटी मां की गोद में थी और छोटी गर्भ में। अब बड़ी आईएएस है और छोटी आईआरएस। पीपीएस होने के बाद पिता द्वारा तय शादी करने से इंकार कर प्रेमविवाह किया था। पत्नी उप्र ट्रेजरी विभाग में काम करते हुए बेटियों को अच्छी परवरिश देते हुए पति के हत्यारों को दंड दिलाने की दौड़-धूप करती रहीं और कैंसर से भी लड़ती रहीं, 2004 में कैंसर से हार गयीं। मां की लड़ाई बेटियों ने आगे बढ़ाया और अंततः 2013 में खबर पढ़ने को मिली की लखनऊ की विशेष सीबीआई कोर्ट ने 18 पुलिस कर्मियों को दोषी मानते हुए सजा सुनाई। उस समय उनकी बेटी (बड़ी) बहराइच की डीएम थी। उसकी छवि कि निष्ठावान, कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी की है। ग्रुप में चलते कुक्कुर विमर्श के संदर्भ यह पोस्ट लिखना शुरू किया था, 1972-73 की याददाश्त के आधार पर कविवर रवींद्र उपाध्याय की एक भोजपुरी कविता, 'कुक्कुर काव्य' शेयर करने के लिए लेकिन भूमिका में मन भटक गया। लगभग उसी समय की याददाश्त के आधार पर कृष्ण प्रताप की एक कविता शेयर कर रहा हूं। किताबों के अलावा मेरे जनवादी संक्रमण में जिन चंद व्यक्तियों का योगदान है, उनमें केपी भाई भी थे। यह कविता 'परिवेश' के किसी अंक में छपी थी। कुक्कुर काव्य फिर कभी।
सदियों के सूखे के बाद एक हरी क्यारी नजर आई थी
विश्वास था, इसलिए देखभाल का काम तुम्हें सौंपा था
विश्वास चलता रहा क्योंकि तुम्हारे साथ वाला भौंका था
किया होता जो प्रत्यक्ष आघात, टूट जाता शायद विश्वास
पर तुमने तो निराई के बहाने सारी फसल हीनकाट ली
अब दिखा रहे हो उसपर सहानुभूति, बची है जो शेष घास
व्यथा से चीखा भी तो मुंह परल ताले लगाए
सत्ता की डोर इसलिए नहीं सौंपी थी
कि अपने ही गले का फंदा बन जाए
फंदा कमजोर है, मैं भारी हूं, टूटजाएगा
वह तो मेरे पूर्वजों की लाशों से
अब कहते हो मेरी जिंदगी मिर्च का धुंआ है
इससे तो वही लोग डरा करते हैं
जिनके सिर पर भूत रहा करते हैं
कि मेरी जिंदगी मिर्च का धुआं तो बनी
इससे तो बड़े बड़े भूत भगा करते हैं।
लगभग 48 साल पहले की पढ़ी-सुनी कविता है, यादाश्त की भूलचूक के लिए केपी भाई की आत्मा से क्षमा-याचना के साथ।
कवि कृष्ण प्रताप की स्मृति को विनम्र नमन।