अर्थ ही मूल है। आदिम युग में पहले (लैंगिक श्रम) विभाजन के बाद के लंबे समय तक (कम-से-कम पशुपालन चरण तक) लगभग सभी समाज मातृसत्तात्मक थे क्योंकि स्त्रियों का आर्थिक योगदान अधिक होता था। विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है आदिम साम्यवाद से दसता में संक्रमण पर एक नोट कभी लिखा था, मिलने पर शेयर करूंगा, लेकिन बाद के कई श्रमविभाजनों तथा कृषि के मुख्य आर्थिक श्रोत बनने के बाद ऐतिहासिक कारणों से पुरुषों के कार्य का आर्थिक महत्व ज्यादा आंका जाने लगा और ज्यादातर समाज पितृसत्तात्मक बन गए। इसमें लाखों साल लगे। इस संरचना को बरकरार ऱकने के लिए पुरुषवाद (मर्दवाद) की विचारधारा रची गयी, उसी तरह जैसे आधुनिक अमेरिका में दास प्रथा की पुष्टि के लिए नस्लवाद की विचारधारा रची गयी। इस विचारधारा के दुर्ग में स्त्रियों को घर की चारदीवारों में कैद कर, प्रतीकात्मक रूप से कहें तो, पाजेबों की बेड़ियों और कंगनों की हथकड़ियों में जकड़ दिया गया। ऐतिहासिक कारणों से स्वतंत्रता आंदोलन से शुरू हुआ स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ मंदगति से चलते हुए गति पकड़ता गया और पिछली शताब्दी समाप्त होते होते काफी दूरी तय कर लिया। अवसर मिलते ही लड़कियों ने जीवन के हर क्षेत्र में चुनौतियां स्वीकार करना और नई चुनौतियां देना शुरू कर दिया। 1982 में मुझे अपनी बहन की 8वीं के बाद की पढ़ाई के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। मैं नालायक छवि की जेएनयू में शोधछात्र था। कोई यह पूछ ही नहीं रहा था कि बाहर पढ़ने का खर्च कहां से आएगा। मेरी अडिग जिद के चलते अंततः वह राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ से 9वीं से लेकर एमए बीएड कर सकी। आज किसी बाप की कात नहीं है कि सार्वजनिक रूप से कहे कि बेटा-बेटी में फर्क करता है। विचारधारा न केवल उत्पीड़क को प्रभावित करती है, बल्कि पीड़ित को भी। पिताजी को ही नहीं लगता था कि मां को आदेश देना उनका अधिकार है, मां को भी लगता था कि उनकी आज्ञा का पालन उसका कर्तव्य है। आर्थिक संरचना में परिवर्तन के साथ राजनैतिक-कानूनी अधिरचनाओं में तुरंत परिवर्तन होता है, लेकिन सांस्कृतिक अधिरचना के मूल्य तुरंत नहीं बदलते क्योंकि हम उन्हें अंतिम सत्य की तरह व्यक्तित्व के अभिन्न अंग की तरह आत्मसात कर लेते हैं। गांवों में महिलाओं के आरक्षित प्रधान पदों पर प्रधानपति काम करते हैं, धीरे धीरे प्रधान पति का स्थान प्रधान ले रही हैं। मेरी पीढ़ी की ज्यादातर प्रोफेसनल स्त्रियां डबल रोल करती हैं -- फुलटाइम प्रोफेसनल तथा फुलटाइम हाउस वाइफ र शादी के बाद पति का सरनेम धारण कर ली हैं। स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है। कुछ स्त्रियां अब शादी के पहले का नाम छोड़े वगैर पति का नाम भी जोड़ लेती हैं, कुछ केवल अपना ही सरनेम लिखती हैं। स्त्रीविरोधी होने के लिए पुरुष हो उसी तरह जरूरी नहीं है जिस तरह स्त्री अधिकारों का समर्थन करने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है। कमेंट लंबा हो गया। कुछ और काम करना है। बाकी फिर कभी इस विषय पर पूरे लेख में।
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