शुभकामनाएं। सामाज के भौतिक विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर और स्वरूप होता है जो व्यक्तिगत चेतना का निर्धारण करता है। इन सामाजिक मूल्यों को हम वांछनीय अंतिम सत्य और स्वाभाविक मानकर आत्मसात कर लेते हैं। इन विरासती मूल्यों को हम संस्कार कहते हैं, जिन्हें हम बिना किसी चैतन्य इच्छा के जस-का तस ग्रहण कर लेते है (the values which we acquire without any conscious will)। सामाजिक चेतना के रूप में अनायास (बिना प्रयास) ग्रहण किए गए मूल्यों से मिथ्या चेतना का निर्माण होता है, जिन पर हम सवाल नहीं करते और आजीवन उसका शिकार बने रहते हैं।
शिक्षा संस्थान ज्ञान नहीं देते, ज्ञान जो पढ़ाया जाता है उससे नहीं प्राप्त होता बल्कि, उस पर सवाल करने से प्राप्त होता है।(knowledge does not emanate from what is taught but from questioning, what is taught) जिसे हमारे अभिभावक और शिक्षक प्रोत्साहित करने की बजाय हतोत्साहित करते हैं। आप सबको पूरे छात्र जीवन में एकाध ऐसे शिक्षक जरूर मिले होंगे जिन्होंने ज्यादा सवाल पूछने वाले छात्र को बोला होगा कि अपना दिमाग ज्यादा मत लगाओ। जबकि उसे कहना चाहिए लगातार हर बात पर निरंतर दिमाग लगाओ। क्योंकि ज्यादातर शिक्षक शिक्षक होने का महत्व नहीं समझते जब कोई नौकरी नहीं मिलती तो जुगाड़ से शिक्षक बन जाते हैं। इलाहाबाद विवि में मॉडर्न अल्जेब्रा के एक लोकप्रिय शिक्षक अक्सर कहा करते थे कि अभी ईश मिश्र ग्रुप (फील्ड या रिंग) का कोई अजूबा मॉडल पेश कर देंगे। उनकी लोकप्रियता का कारण परीक्षोपयोगी शिक्षण था। राजनीति में शोध के दौरान कुछ दिन गणित पढ़ाने में भी मैं प्रायः सामाजिक संबंधों से गणितीय संबंध तथा फंक्सन पढ़ाता था, जो बच्चे आसानी से समझ जाते थे (विस्तार में जाने की न गुंजाइश है न जरूरत या सार्थकता)। वैसे वे बहुत अच्छे इंसान थे जिनसे मेरे अच्छे नजी संबंध थे। अच्छा इंसान होना अच्छे शिक्षक की आवश्यक शर्त है किंतु पर्याप्त नहीं। केमिस्ट्री के एक शिक्षक सवालों से इतना घबराते थे कि उन्होंने अपना सेक्सन ही बदलवा लिया था। खैर कमेंट इतना लंबा होता जा रहा है कि लगता है एक कमेंट बॉक्स में अंटेगा नहीं।
मैं 1968 में दसवीं कक्षा में, 13 साल की उम्र में, जौनपुर में गोमती किनारे एक प्राइवेट हॉस्टल (कामता लाज) में रहते हुए एक सुपर सीनियर (बीए के छात्र) के प्रभाव में कबड्डी तथा खो खेलने नदी तट पर एक बगीचे में जाने लगा। शहर के बच्चों पर तरस भी आया कि उनका खेलों का भंडार इतना सीमित था! उनके अजीबो गरीब आचार (पहुंचते ही एक दूसरे से दुआ सलाम की बजाय झंडे के सामने छाती पर हाथ रखने का कर्मकांड आदि), न समझ में आने वाले संस्कृत में ड्रिल के कमांड तथा प्रर्थना असंबद्ध होने के बावजूद ब्राह्मणीय संस्कारों के अनुरूप। इसलिए अच्छे लगे। ड्रिल और वर्दी मुझे पसंद नहीं थे इसलिए मैंने निक्कर नहीं लिया र शाखा में जाना कम कर दिया लेकिन वैचारिक रूप से शाखामृग बना रहा। गोल्वल्कर को सुनने बनारस गया उनका पुरोहिती प्रवचन की तरह समझ नहीं आया फिर भी अच्छा लगा। बाद में (1986) सांप्रदायिकता पर एक शोध के लिए जब उनके छपे विचार पढ़े तब लगा कि 99% स्वयंसेवक उनके प्रति भक्तिभाव की आस्था के बावजूद उन्हें पढ़ते नहीं। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि कि इस ग्रुप के 99% शाखामृग न तो गोलवल्कर के छपे विचार पढ़े हैं न बुद्ध को मातृधर्म का गद्दार मानने वाले दीनदयाल उपाध्याय के। चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है और बदली चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन न्यूटन के नियम के अनुसार, अपने आप कुछ नहीं बदलता, भौतिक परिस्थितियां चैतन्य मानव प्रयास से बदलती हैं। अतः वास्तविक यथार्थ की संपूर्णता भौतिक परिस्थितियों और चेतना के द्वंद्वात्मक मिलन से बनता है। 1972 में इवि में आने पर शाखा तो कभी कभी ही जाता था लेकिन ब्राह्मणीय संस्कारों (मिथ्या चेतना) के प्रभाव में वैचारिक रूप से शाखामृग बना रहा। जब शाखा जाना शुरू किया तब तक जनेऊ से मुक्ति पा चुका था। ज्ञान की तलाश में सवाल करने की प्रवत्ति के चलते तंत्र-मंत्र, कर्मकांड, धार्मिक रीति-रिवाज आदि पर सवाल करते रहने के कारणनास्तिकता की यात्रा इवि में साल बीतते बीतते पूरी हो चुकी थी। इवि में 1972 में परिस्थितिजन्य कारणों से, छात्रसंघ के तत्कालीन महामंत्री (बाद के अध्यक्ष तथा 1991 में कल्याण मंत्रिपरिषद में मंत्री) ब्रजेश कुमार के प्रयास से विद्यार्थी परिषद का सदस्य ही नहीं पदाधिकारी बन गया। मैं धार्मिक नहीं था, लेकिन सांप्रदायिक था। तब यह भी नहीं जानता था कि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिर विचारारा है। जारी।
किसी ने प्रकारांतर से कहा कि मैं सनातन संस्कृति को मिथ्या चेतना कहता हूं और यदि जनेऊ धारण करना या जातिवादी सोच मिथ्या चेतना है तो जातिसूचक सरनेम क्यों रखता हूं?वैसे इस सवाल का जवाब 47-48 सालों में कई बार कई तरह से दे चुका हूं, एक बार फिर।
ReplyDeleteकौन कहां पैदा हो गया जिससे उसे क्या सरनेम मिला उसमें उसका कोई योगदान नहीं है, ल लिए उसमें न तो गर्व करने की कोई बात है न शर्म करने की या छिपाने की। महत्वपूर्ण यह है कि कोई कहीं भी, किसी सरनेम के साथ पैदा होकर तिहास या समाज की कैसी सोच विकसित करता है। सरनेम ोड़ने की अवांछित सलाह पिले 47-48 साल से तमाम ऐरे-गैरे देते आ रहे हैं जिस पर मैं बहुत लिख चुका हूं। 1968 में 13 साल का होते-होते जनेऊ अनावश्यक लगने लगा र तोड़कर फेंक दिया। कोई भी दुबारा पहनने का कोई तर्कसंगत कारण न दे सका। मिश्र समेत किसी भी सरनेम वाला व्यक्ति वैज्ञानिक सोच विकसित कर सकता है, इसलिए सरनेम छोड़ना अनावश्यक लगा। मैंने तो सनातन संस्कृति को कभी मिथ्या चेतना नहीं कहा. मैं जानता ही नहीं वह क्या चीज होती है तो उसे मिथ्या चेतना क्यों कहूंगा? मैंने अलग से पोस्ट डालकर भी जानना चाहा किसी ने कु बताया ही नहीं जिसने बताया भी तो अंट-शंट। आप ही सरल शब्दों. बोगम्य में बता दीजिए सनातन संस्कृति क्या होती है। वरना सनातन का भजन मत गाइए, सादर।