एक मित्र ने एक विशिष्ट संदर्भ में कमेट किया कि मैं ब्राह्मणों को गाली देकर ज्ञानी बनने की कोशिस करता हूं। उस पर --
ब्राह्मण का नहीं, काम-विचारों की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाली विचारधारा, ब्राह्मणवाद (जातिवाद) की आलोचना करता हूं। ज्ञानी तो हूं नहीं, दिमागी क्षमता की सीमाओं के अंतर्गत सवाल-जवाब की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से नित ज्ञानार्जन के प्रयास में रहता हूं और शिक्षक के नाते उसे छात्रों समेत मित्रों के साथ शेयर करता हूं। क्योंकि जैसे कोई अंतिम सत्य नहीं होता, वैसे ही कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता। ज्ञान एक निरंतर ऐतिहासिक प्रक्रिया है तथा ऐतिहासिक रूप से हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है जो पिछली पीढ़ी की उपलब्धियोें को समीक्षात्मक रूप से (critically) समेकित (consolidate) करती है और उसमें नया जोड़कर आगे बढ़ाती है। तभी तो हम पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंचे हैं।शिक्षक को लगातार शिक्षित होते रहना चाहिए। हम सजग रहें तो हमे परिवेश नित शिक्षित करता है, हमारे बच्चे और छात्र भी। मैं अपनी बेटियों के साथ बढ़ने के कुछ अनुभव, राजनैतिक दर्शन पढ़ाते हुए, उदाहरण के रूप में अपने छात्रों के साथ शेयर करता था, मेरी बेटी रॉयल्टी मांगती है। मेरी छोटी बेटी जब 4 साल की थी तो एक बार दोनों बहनें लड़ रही थीं। उससे मैंने कहा कि उसे सोचना चाहिए कि वह उससे 5 साल बड़ी है। उसने अकड़कर जवाब दिया था 'उन्हें भी तो सोचना चाहिए कि मैं उनसे 5 साल छोटी हूं'। मुझे लगा बात तो बिल्कुल सही कह रही है। इज्जत कमाई जाती है और पारस्परिक होती है। सीनियर्स को यदि जूनियर्स से इज्जत चाहिए तो उन्हें भी उनकी इज्जत करना सीखना चाहिए। इसीलिए मैं कहता हूं कि अभिभावकी करते हुए हमें बच्चों के सोचने के अधिकार और बालबुद्धिमत्ता का सम्मान करना चाहिए। कमेंट लंबा हो गया, बाकी बातें फिर कभी। एक बात और मुझसे जब कोई कहता है कि मेरे छात्र मेरा बहुत सम्मान करते हैं तो मैं कहता हूं कि कौन सा एहसान करते हैं, मैं भी तो उनका सम्मान करता हूं। पुराने छात्र मिलते हैं तो इस बात का आभार जताते हैं कि मैं उनसे मित्रवत व्यवहार करता था। मैं कहता हूं कि पहली बात कि उन्होंने मेरा खेत नहीं काटा था कि शत्रुवत व्यवहार करूं और दूसरी बात कि ऐसा स्वार्थवश करता था क्यों कि किसी रिश्ते का वास्तविक सुख तभी मिलता है जब वह जनतांत्रिक, समतामूलक और पारदर्शी हो, पारस्परिक सम्मान उसका उपप्रमेय होता है। समता एक गुणात्मक अवधारणा है, मात्रात्मक इकाई नहीं। शक्तिजन्य, श्रेणीबद्धता के संबंधों में सुख नहीं, सुख का भ्रम मिलता है। बहुत लंबा कमेंट हो गया, क्षमा कीजिएगा। अंतिमबात, ब्राह्मणवाद-नवब्राह्मणवाद (जातिवाद-जवाबी जातिवाद) की आलोचना प्रकारांतर से आत्मालोचना है जो कि बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। सादर।
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