पिछले कमेंट से आगे:
ऊपर मैं बता रहा था कि किस तरह विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और स्तर विकसित होता है। और यह कि मनुष्य की चेतना से उसकी भौतिक परिस्थियों का निर्धारण नहीं होता बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है, बदली हुई चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के सोचे-समझे, चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। कहने का मतलब कि मनुष्य सायास अपनी परिस्थितियां बदलता है और बदली परिस्थितियां उसकी चेतना बदलती हैं तथा यह द्वंद्वात्मक क्रिया निरंतर प्रक्रिया है। 1972 में ब्राह्मणीय संस्कारों तथा आरएसएसीय परिवेश के सामाजिककरण की परिस्थियों के परिणाम स्वरूप परिवर्तित चेतना (जिसे अब मिथ्याचेतना कहता हूं) के चलते छात्रसंघ के तत्कालीन महासचिव और भावी अध्यक्ष के प्रभाव में मैं विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया। शाखा जाना मुझे अच्छा नहीं लगता था लेकिन चेतना में संघ की विचारधारा के अवशेष बचे थे जिससे मोहभंग के लिए नई परिस्थितियों का इंतजार था। विद्यार्थी परिषद में प्रवेश के संस्मरण पर दो शब्द जरूरी है। जैसा मैंने ऊपर लिखा है कि मैं तब तक लगभग नास्तिक बन चुका था ।
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ऊपर मैं बता रहा था कि किस तरह विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और स्तर विकसित होता है। और यह कि मनुष्य की चेतना से उसकी भौतिक परिस्थियों का निर्धारण नहीं होता बल्कि उसकी चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है, बदली हुई चेतना बदली परिस्थितियों का। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के सोचे-समझे, चैतन्य प्रयास से बदलती हैं। कहने का मतलब कि मनुष्य सायास अपनी परिस्थितियां बदलता है और बदली परिस्थितियां उसकी चेतना बदलती हैं तथा यह द्वंद्वात्मक क्रिया निरंतर प्रक्रिया है। 1972 में ब्राह्मणीय संस्कारों तथा आरएसएसीय परिवेश के सामाजिककरण की परिस्थियों के परिणाम स्वरूप परिवर्तित चेतना (जिसे अब मिथ्याचेतना कहता हूं) के चलते छात्रसंघ के तत्कालीन महासचिव और भावी अध्यक्ष के प्रभाव में मैं विद्यार्थी परिषद का पदाधिकारी बन गया। शाखा जाना मुझे अच्छा नहीं लगता था लेकिन चेतना में संघ की विचारधारा के अवशेष बचे थे जिससे मोहभंग के लिए नई परिस्थितियों का इंतजार था। विद्यार्थी परिषद में प्रवेश के संस्मरण पर दो शब्द जरूरी है। जैसा मैंने ऊपर लिखा है कि मैं तब तक लगभग नास्तिक बन चुका था यानि धार्मिकता से मेरा मोह भंग हो चुका था लेकिन सांप्रदायिकता से नहीं। और यह कि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है। समाजिककरण से बनी चेतना को हम अंतिम सत्य की तरह आत्मसात कर लेते हैं तथा उनपर तार्किक प्रश्न करने से कतराते हैं। समाजीकरण से निर्मित मेरी चेतना ने आरएसएस टाइप अपरिभाषित राष्ट्रवाद ्ंतिम सत्य के रूप में आत्मसात किया हुआ था, जिसे मैं उसी तरह नहीं परिभाषित कर सकता था जैसा इस ग्रुप में राष्ट्रभक्ति और गद्दारी की सनद बांटने वाले कुछ लोग। बाकी, सुबह, अभी साढ़े 9 ही बजे हैं लेकिन लगता है, बुढ़ापा आ ही गया है, दिमाग थका लग रहा है।
जारी
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