4 साल पुरानी पोस्ट और उस पर कुछ
कमेंट: (43 साल पहले की बात अब 47 साल पहले की हो गयी।)
विवाह पुराण
आज से पूरे 43 साल पहले (उम्र 17 साल में 27 दिन कम) आज की तारीख में मेरी शादी की पूर्वसंध्या पर भत्तवान का
भोज था. मैं इंटर की परी देकर घर लौटा तो शादी का कार्ड छपा मिला. मैं अवाक. कम
उम्र में शादी के मेरे विरोध को कुछ शातिर बुजुर्गों ने गप्पबाजी मे प्रचारित किया
कि मैं अपनी मर्जी से शादी करना चाहता हूं. दादी कार्ड छपने के बाद शादी न होने से
किसी की लड़की की इज्जत का हवाला देकर रोने लगीं. मुझसे देखा न गया. राजी हो गया.
तब भी लोग मेरे ऊपर नज़र रख रहे थे कि कहीं भाग न
जाऊं. लेकिन मैं तो दादी को वचन दे चुका था. उन दिनों 1 महीने पहले लगन लग जाती थी तथा बहुत से कर्मठ होते थे, मैंने उन कर्मठों में नहीं शरीक हुआ, किसी ने जिद्द भी नहीं किया. फुटनोट में टेक्स्ट को पीेछे छोड़ने
की कुआदत लगता है बुढ़ापे में बढ़ जाती है. एक गांव(नाम याद नहीं आ रहा) से जाजिम
ले आना था. बीहड़ के उस गांव (छोटी
नदियों के बीहड़ विकट होते हैं) में बैल गाड़ी नहीं जाती थी. ऊंट से ले अाना था.
मैं ऊंट की सवारी के चक्कर में ऊंटवान के साथ चला गया. लौटने में देर होने से
हंगामा मच गया था. हर किसी को दादा जी की डांट पड़ी थी कि पगला (मुझे वे इसी नाम
से बुलाते थे) को जाने देने के लिये, मुझे छोड़ कर. लिख चुकने के बाद लग रहा है कि बेजरूरत लिखा गया.
लेकिन अब तो लिखा गया.
जेयनयू में एक दोस्त से पूछा था कि
अगर मेरी टीनेज में शादी न हुई होती तो क्या वह मुझसे शादी कर लेती. उसका 2 टके का जवाब था मुझसे दुनिया की कोई लड़की शादी न करती. हा हा
43 साल पहले, 28 मई 1972 की भत्तवान (शादी के 1 दिन पहले भात-भोज) के दिन की एक घटना पर एक पोस्ट डाला तो
प्रतिक्रियायें देख ऒर चंचल भाई का कहानी पूरी करने का आदेश मान संक्षिप्त विवाह
पुराण प्रस्तुत करता हूं. सबसे पहले यह बता दूं कि पांचवीं तक (उन दिनों भले घरों
की लड़कियां इतना ही पढ़ती थीं) पढ़ीं सरोज जी बहुत ही समझदार तथा बेहतरीन इंसान
हैं. मेरी आवारागर्दी नहीं पसंद हैं लेकिन झेल लेतीं हैं. मेरी एक अज़ीज दोस्त ने
इनकी तारीफ में कहा कि she is so natural. लंबी बेरोजगारी
की गर्दिश में कभी कोई शिकायत नहीं की, न बेटियों ने.
मैं जब जूनियर हाई स्कूल (8वीं) की परीक्षा उत्तीर्ण किया, बल्कि जिले में प्रथम स्थान लेकर उत्तीर्ण किया तो मेरे पिता जी ने
कहा कि मैं उनसे ज्यादा पढ़ लिया(उनके समय मिडिल स्कूल 7वीं तक होता था, इसलिये अपने
फैसले खुद लूं. Blessing in disguise. पैदल की दूरी पर
कोई हाई स्कूल नहीं था ( मिडिल स्कूल 8 किमी दूर था), तथा साइकिल पर
मेरा पैर नहीं पहुंचता था. Again blessing in disguise. शहर जाने का मौका मिला तथा मैंने टीडी इंटर कॉलेज जौनपुर में
दाखिला ले लिया. यह बात इसलिये बता रहा हूं कि इन 4 सालों में मेरे पिता जी कभी मिलने नहीं आये. जौनपुर प्रवास के
अंतिम वर्ष, 12वीं की परीक्षा के समय, कहीं से आते हुये पिताजी हॉस्टल मुझसे मिलने आये. मुझे
आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. न सिर्फ अनुपम में खिलाया-पिलाया बल्कि बिना मांगे 100 रुपया भी दे दिया. (देशी घी 8-10 रुपये किलो बिकती थी). मुझे क्या पता था कि मेरी शादी पक्की कर
चुके थे. उसके 1-2 दिन बाद, एक दूर के रिश्तेदार मिलने आये, बेनी की इमरती खिलाने ले गये. बाद में पता चला (परीक्षा के बाद घर
जाने पर) वे जनाब मेरी होने वाली पत्नी के अग्रज थे. घर पहुंचा तो अपनी शादी का
निमंत्रण पत्र देख मिज़ाज गर्म हो गया.
कोई लड़का अपनी शादी के बारे में
बात करे वह भी संपूर्ण नकार के साथ, इसका कोई उदाहरण नहीं था. पूरे इलाके में (आस-पास के 7-8 गांवों तथा निकटवर्ती 2-3 चौराहों पर) लोगों को चर्चा का विषय मिल गया. इस “अभूतपूर्व” बात पर पर विभिन्न पहलुओं से बहस
होने लगी. पढ़ाई जारी रखने की इच्छा तथा कम उम्र के कारण से शादी से इंकार को कहा
गया सुलेमापुर के पंडित हरिशरण का पोता अपनी मर्जी से शादी करेगा. उस वक़्त उस
इलाके में अपनी मर्जी से शादी की बात अकल्पनीय थी. मैं तर्क में तो सबको पछाड़ रहा
था लेकिन था तो गांव का 17 साल से कम उम्र का बालक. पिता जी ने
कहा, शादी से पढ़ाई का क्या ताल्लुक
वगैरह वगैरह. उन दिनों महीना पहले से लगन लगती थी लड़के को कंगन पहनाया जाता था, रोज उबटन लगती थी. लोगों
ने कहा लड़की देख लो. मैंने इन सब से इंकार कर दिया तथा घर से भागने तथा बाद की
पढ़ाई की जुगाड़ के तरीके-उपाय सोचने लगा. 12वीं में 10वीं क्लास की एक लड़की को गणित का
ट्यूसन पढ़ाया था, इसलिये आश्वस्त था कि कुछ-न-कुछ कर
लूंगा. जिस दिन भागने वाला था, अइया(दादी) ने
बुलाया. अइया से मेरे विशिष्ट रिश्ता था. छोटा भाई डेढ़-दो साल ही छोटा था इसलिये
मां पर उसका ज्यादा अधिकार था और मेरा बचपन दादी के साथ ही बीता. दादी रोने लगीं.
बोलीं कि लड़की की इज्जत का मामला है.
जैसे अपनी बेटी वैसे और की भी. लोग कहेंगे लड़की में कुछ कमी होगी तभी तय शादी रुक
गयी. वगैरह वगैरह. मुझसे दादी का रोना नहीं देखा गया. बोला, “अइया रोवा जिन, चला कय लेब”. लेकिन under protest. मैंने शादी का
जोड़ा-जामा नहीं पहना. रोज पहनने वाले कुर्ते में ही शादी किया.
उन दिनों लड़की को शादी में इतना ढक
कर रखा जाता था कि सिर्फ हाथ-पांव दिखते थे. कोहबर में भी घूंघट को ही दही गुड़
खिलाया. सरोज जी ने बारात आते समय छत से मुझे देख लिया था. एक बात के बिना यह
प्रकरण अधूरा रह जायेगा. शादी के दूसरे दिन को बड़हार कहा जाता था. (एक पर्याय भी
था, याद नहीं आ रहा है). दोपहर के भोजन
के बाद नाच-गाने की महफिल जमती थी तथा महफिल के बाद खिचड़ी की रश्म होती थी. वर
अपने हमउम्र तथा कमउम्र लड़कों के साथ मंडप में बैठता था. इसमें dowry in kind का प्रदर्शन होता था. लड़के के सामने खिचड़ी रखी जाती थी. लड़का
छूने में नखड़े करता. मान-मनौव्वल होती. वर पक्ष का कोई जिम्मेदार व्यक्ति
प्रदर्शित सामानों का मुआयना करके, मोल-भाव से संतुष्ट होने के बाद लड़के को खिचड़ी छूने को कहता.
मुझे न तो किसी चीज की चाहत थी न कोई कहने वाला. सब डरे हुये थे कि कहीं कुछ
गड़बड़ न कर दे. जैसे ही खिचड़ी सामने रखी गयी, मैंने छू दिया और दोने रखी मिठाई उठाया तथा अपनी बाल मंडली के साथ
मिठाई खाते टहलते जनवासा(बारात जहां ठहरी थी) आ गये. थोड़ी ही देर बाद वर-वधू
दोनों पक्षों के लोग किसी गहरी चिंता में कानाफूसी करते दिखे. कोई कह रहा था लड़का
मोटरसाइकिल के लिये नाराज गया. कोई कुछ कोई कुछ और. लब्बो-लबाब यह कि लोग सोच रहे थे लड़का
किसी चीज के लिये या किसी बात पर नाराज़ हो गया. मेरे हजार कहने पर लोग मान ही
नहीं रहे थे. मैंने कहा चलिये फिर से बैठ जाता हूं तथा जब कहियेगा तब उठूंगा. और
बालमंडली के साथ दुबारा मंडप में बैट गया. घंटा-आधा घंटा मिष्ठानादि खाते हुये
महिलाओं का मधुर गीत सुनने के बाद, एक मामा की स्वीकृति के बाद, मंडप से उठा. इस तरह एक लड़की से बंध गया. जिसे न शादी के पहले
देखा, न शादी में न उसके बाद 3 साल तक. इलाहाबाद विवि में पढ़ते हुये भूल गया था कि शादीशुदा हूं.
शादी का निर्णय तो मेरा नहीं था, लेकिन उसे निभाने का निर्णय मेरा था. और प्रेम का अधिकार तो
विवाहितो का भी है. अपनी आवारागर्दी, उसूलों की सनक तथा विनम्र-अकड़ की प्रवृत्तियों से बिना समझौता
किये, अपनी सीमों में पारिवारिक
जिम्मेदारियां निभाता रहा, without begging, stealing and kneeling.
मॉफ कीजिये, सालगिरह पर लिखना था लेकिन भूमिका इतनी लंबी हो गयी कि विषयवस्तु
नेपथ्य में चली गयी. इलाहाबाद विवि में प्रवेश के बाद मैंने अपनी अपरिचित पत्नी को, पढ़ाई की संभावनाओं पर एक चिट्ठी लिख दिया, सालों बाद पता चला कि गवन के पहले पति के पत्र को लेकर पत्नी की
काफी बदनामी हुई और वे बहुत रोयी थीं. इलाहाबाद में दीवारों पर सत्तर का दशक
मुक्ति का दशक के नारे लिखते हुये 3 साल बीत गये, शादी की बात भूला
हुआ था. भ्रष्टाचार विरोधी छात्र आंदोलन के दौरान पता चला कि मेरा गवन पड़ गया है.
28 फरवरी 1975. मैं अपने एक सीनियर तथा मित्र के
साथ इलाहाबाद से शाहगंज पहुंचा जहां बारात मेरा इंतजार कर रही थी. अगले दिन
गाड़ी(मोटर) (शादी में बैलगाड़ी गयी थी. बैलगाड़ी का फुटनोट टाल जा रहा हूं) में
बगल में घूंघट में बैठी सरोज जी से रास्ते भर (लगभग 35 किमी) कोई संवाद नहीं हुआ.
घर पहुंचकर वे मुंहदेखाई में व्यस्त
हो गयीं तथा मैं नदी किनारे इमली के बगीचे में अपने एकांत के आनंद में. मैं जब भी
घर जाता तो उस चबूतरे पर एकांत में काफी समय बिताता. एकांत की जगहें और भी थीं, लेकिन यह प्रमुख थी. उस उम्र में क्या कुछ सोचता रहा होऊंगा कुछ
याद नहीं, इतना याद है कि दिमाग कभी विराम में
नहीं रहता था, विराम को भी गति देता था. सोचता हूं
फुटनोट के चक्कर में न पड़ूं लेकिन पड़ ही जाता हूं. मुख्य कहानी पर वापस आता हूं.
रात को भोज के दौरान ही मैं खाकर बैठक में ही सो गया. मैं कम सोता हूं लेकिन गहरी
नींद. भाभी ने फुसफुसाहट में जगाने की कोशिस नाकाम होने पर झकझोर कर जगाया. तब
मुझे याद आया कि वह रात सुहागरात की रात थी. एक अनजान लड़की के साथ सोने की बात
अजीब लग रही थी पर वर्जनाओं से ओत-प्रोत समाज में संभोग की अनंत, वैध संभावनाओं की किशोर उत्सुकता के साथ कमरे में गया. लालटेन की
मद्धम रोशनी में अपनी मखमली रजाई में मस्त सो रहीं थी. थोड़ी देर मैं इस 17-18 साल की सोती हुई लड़की की शकल निहारता रहा लड़कियों की नियति पर
सोचते हुये कि जिस खूंटे से बांध दो बंध जाती थीं. लेकिन अब यह इतिहास की बात रह
गयी है, नारीवादी चेतना का रथ काफी दूरी तय
कर चुका है. मैंने बुलाया सरोज जी. वे जगीं नहीं. तब रजाई में घुस कर पुकारा तो
बोलीं, हां. इस तरह हमारा संवाद शुरू हुआ.
लेकिन दो अपरिचित लोग क्या तथा कितनी बातें करेगे, दो किशोर, उस सांस्कृतिक माहौल में जिसमें “भले” घरों की लड़कियां घर से बाहर कम
निकलती हों, ज्यादा बात न करती हों, अपरिचित से तो कतई नहीं. इस तरह हमारे संबंधों की शुरुआत जिस्मानी
परिचय से हुई. अगली सुबह कमरे से चाय पीने के बाद निकला और अगली रात खाने के बाद
सीधे कमरे में चला गया. संय़ुक्त परिवार की महिलाओं को गप-शप का विषय मिल गया.
कितना दोगला समाज था/है. सेक्स की नियंत्रित व्यवस्था के रूप में विवाह संस्थान की
स्थापना हुई और बीबी के पास चुपके से आओ, चुपके से निकल जाओ. गांव के एक वरिष्ठ उस समय की गांव की पारंपरिक शादियों के बारे में कहते थे कि
खूंट(धोती का) खोलते हुये घर में घुसो, बांधते हुये निकलो. धीरे-धीरे हमारी थोड़ा बातचीत होने लगी. विषय
सीमित थे. सबके सामने पत्नी से खुलेआम बात करना अच्छा नहीं माना जाता था. छुट्टी
लंबी करता रहा. लेकिन जाना तो था ही. पिताजी ने मुझे सुनाकर मां से एक दिन बोले कि
कहां तो शादी में नखड़े कर रहे थे, अब छुट्टी ही नहीं खत्म हो रही है, होली में मुलाकात हुई फिर आपातकाल में बेपरवाही के चलते बंद हो गया
डीआईआर से छूटा मीसा में वारंट जारी हो गया. भूमिगत अस्तित्व तथा रोजी-रोटी की
संभावनायें तलाशता दिल्ली आ गया और सरोज जी से अगली मुलाकात 2 साल बाद हुई, आपातकाल खत्म
होने पर. यह पुराण यहीं खत्म करता हूं.
सालगिरह की पूर्व संध्या पर्याप्त
शुभकामनायें मिल चुकी हैं लेकिन असली तो आज है, आज भी कुछ दे दीजिये. मैं तो सरोज जी का शुक्रगुजार हूं कि उन्होने
मुझ जैसे जन्मजात आवारा को झेला आगे भी झेल लेंगी.
No comments:
Post a Comment