न अवस्था कोई कारण है न कारपेट पर चलने की इच्छा, सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में वाम की असफलता, पार्टी में न होने के बावजूद उसमें मैं भी शामिल हूं। मैं निराश जरूर हूं हताश नहीं। दरअसल इनका विकल्प भी इनसा ही है। कांग्रेस और भाजपा में पारस्परिक आवाजाही इसका सबूत है। इलाहाबाद में कांग्रेसी भाजा का उम्मीदवार है और भाजपाई कांग्रेस का। नरसिंह राव की नीतियों को बाजपेयी ने आगे बढ़ाया तथा मनमोहन की नीतियों को मोदी ने। मनमोहन जो काम लोक-लाज में करते थे मोदी ने उसे आक्रमकता से किया। कॉरपोरेटी हित के संवर्धन में धर्मोंमादी मुलम्मा लगा दिया। शासक वर्ग अपने आंतरिक, प्रायः बनावटी अंतरविरोधों को इतना प्रचारित करता है कि मुख्य अंतरविरोध (आर्थिक) की धार कुंद हो जाती है। हमेशा गरीब पर सर्वाधिक पड़ती है। पिछले 5 सालों में मध्य वर्ग पर हमला शुरू हुआ जो अगले 5 सालों में महसूस होगा। बेरोजगारी बढ़ने की गति और तेज होगी। लोगों की क्रय शक्ति घटेगी जारी मंदी चरम पर पहुंचेगी। लेकिन मैं भविष्य की पीढ़ियों की क्रांतिकारी संभावनाओं के प्रति आशावान हूं। बाकी जिंदगी सामाजिक चेतना के जनवादीकरण को समर्पित है।
इस मंच पर मैं लोगों, खासकर सवर्णों, उनमें भी खासकर ब्राह्मणों की चेतना को वैज्ञानिक आयाम देने में अपनी असफलता स्वीकार करता हूं, लेकिन हार नहीं मानता। मैं हॉस्टल में वार्डेन था तो बच्चों में कई नए प्रयोग किए। मेरे पहले वाले वार्डन ने कहा कि गधों को रगड़ रगड़ कर घोड़ा नहीं बनाया जा सकता। मैंने बच्चों के बारे में नकारात्मक सोच के लिए उसकी आलोचना के साथ कहा, मेरा काम है रगड़ना, क्या पता बन ही जाएं। वे 3 साल काफी सुखद थे। अंत में अपशब्दावली में निजी आक्षेप करने वाले सदस्यों के प्रति गुस्सा नहीं है, अफशोस है कि 1970 के दशक का वैज्ञानिक चेतना के साथ मुक्ति का सपना आगे बढ़ने की बजाय पीछे खिसका है।
मेरे ऊपर अलग से पोस्ट डालने के लिए Avnish जी का आभार।
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