Friday, May 31, 2019

ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-91)


ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-91)
ईश मिश्र
यह लेख शुरू किया था 2019 के लोक सभा चुनाव के अंतिम चरण के पहले जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के चुनावी रोड शो में ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति टूटी और समापन चुनाव परिणाम के बाद जब लगभग 100 साल के श्रमसाध्य प्रयास के बाद हिंदू राष्ट्र की परियोजना लघभग पूरी सी हो चुकी। पिछले चुनाव के विपरीत इस चुनाव में मुद्दा विकास, बेरोजगारी या भ्रष्टाचार का न होकर पुलवामा में आतंकवादी हमला तथा पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय हवाई हमले के संदर्भ में  राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रवाद के बाहरी तथा भीतरी खतरों का था। बाहरी खतरे का प्रतिनिधि पाकिस्तान तथा भीतरी का मुसलमान, दलित, आदिवासी तथा हिंदू-राष्ट्रवाद के विरोधी – नक्सली तथा अर्बन नक्सली जो देश की संपदा कॉरपोरेटों को सौंपने के विरोधी हैं। सनातनी कुरीतियों तथाब्राह्मणवादी पाखंड के प्रखर विरोधी ईश्वरचंद्र विद्यासागर के विचार हिंदू राष्ट्र की आरयसयस की अवधारणा से मेल नहीं खाते। इस लेख का मकसद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान कलकत्ता में 19वीं शदी के नवजागरण की महा-विभूति ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ने की घटना के बहाने उनकी संक्षिप्त जीवनी पर चर्चा  है। हर तानाशाह विरोधी विचारों से डरता है और उसके प्रतीकों को खंडित करता है। प्राचीन एथेंस में तो सुकरात के तर्कों के डर से उन्हें मार ही डाला गया था। 
14 मई, 2019 को भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह के रोडशो में आए हिंदी राष्ट्रवादियों ने कलकत्ता में विद्यासागर कॉलेज में घुसकर हुड़दंग मचाया और विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी। वैसे तो बाहु-बल तथा भीड़-बल के प्रयोग में ममता की तृणमूल कांग्रेस भी भाजपा से पीछे नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में इसका दोष तृणमूल कांग्रेस के गुंडों पर ही मढ़ा। लेकिन सोसल मीडिया पर वायरल वीडियो में मूर्ति पर हमला करने वाले भगवा कमीज में दिख रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोप के विवाद से परे तथ्य है कि आधुनिक भारत में नवजागरण के एक महानायक द्वारा 1872 में स्थापित, कलकत्ता विश्वविद्यलय के पहले भारतीय कॉलेज के कैंपस में उनकी स्मृति में बनी उनकी मूर्ति को जमींदोज कर दिया गया। ऐतिहासिक स्मृतियों को नष्ट करना फासीवादी प्रवृत्ति है। हर युग की प्रतिक्रियावादी या कट्टरपंथी ताकतें विचारों से भयभीत विचारक की स्मृतियां मिटाने लगती हैं। लेकिन विचार तो मिटते नहीं, फैलते हैं तथा इतिहास रचते हैं। 2001 में अफगानिस्तान के  बामियान में, तालिबानी कट्टरपंथियों द्वारा बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्ति तोड़ दिया। मूर्तिपूजा के विरोधियों की मूर्तिभंजक दरिंदगी के कुछ कुतर्क गढ़े जा सकते हैं। लेकिन मूर्तिपूजा की सियासत करने वाला मूर्ति भंजक क्यों हो जाता है? क्या ये मूर्तियां इनकी मूर्तियों के लिए चुनौती हैं? सुविदित है कि भाजपा समेत आरयसयस के अनुषांगिक संगठनों के नेतृत्व में, शिलापूजन से केंद्र में शासन तक का सांप्रदायिक आक्रामकता के मौजूदा दौर के केंद्र में एक मूर्ति ही रही है, रामलला की। उनका मानना है कि राम उसी जगह पैदा हुए थे, अयोध्या में जहां बाबरी मस्जिद थी। मूर्ति (मंदिर) के इस आक्रामक अभियान ने 1992 में बाबरी मस्जिद तो ध्वस्त कर दिया लेकिन मंदिर नहीं बना, हर चुनाव में बनाने का वायदा होता है। इनकी सरकार भूखी-प्यासी जनता की खून-पसीने की कमाई के हजारों करोड़ के खर्च पर ‘एकता मूर्ति बनाती है और इनका भीड़-बल भेजभाव तथा एकता के हिमायती ऐतिहासिक महापुरुषों की मूर्तियों पर चुन-चुन कर हमले करती है। 2014 में केंद्र में भाजपा नेतृत्व की सरकार बनने के बाद इनके भीड़बल द्वारा तमिलनाडु में पेरियार की मूर्ति को क्षत-विक्षत किया, पेरियार धार्मिक कुरीतियों तथा ब्राह्मणवादी पाखंड के कटु आलोचक थे। उत्तर प्रदेश में अंबेडकर की मूर्ति की तोड़फोड की अंबेडकर हिंदू जातिव्यवस्था के विनाश के पैरोकार थे। त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ा, लेनिन समाजवादी क्रांति के पैरोकार थे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जीवन प्रचलित धार्मिक, सामाजिक कुरीतियों तथा छुआछूत के उंमूलन के अभियान को समर्पित था।    
जब हमलोग स्कूल में पढ़ते थे तो ईश्वरचंद विद्यासागर के बारे में कठिन परिस्थितियों में पढ़ाई के रूपक के तौर पर किंवदंतियां सुनते थे। जिनके अनुसार, वे बहुत परिश्रमी तथा अप्रतिम लगन वाले, गरीब विद्यार्थी थे, जो दिए के तेल की कमी में सड़क के किनारे लैंपपोस्ट के नीचे पढ़ाई करते थे। बाद में  बंगाल में नवजागरण के अध्ययन के दौरान ब्रह्मसमाज आंदोलन के नायकों में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का व्यक्तित्व वैसा ही आकर्षक लगा, जैसा उन्ही के समकालीन, महाराष्ट्र में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति के पर्याय बन ज्योतिबा फुले का। उनकी ख्याति अपने समय के एक महान दार्शनिक, लेखक, भाषाविद, समाज सुधारक के रूप है। वे आधुनिक बांगला भाषा की वर्णमाला के जनक माने जाते हैं।
उनका जन्म 1820 में बंगाल के मेदिनीपुर जिले के एक गांव में एक गरीब परिवार में हुआ। गांव में शुरुआती पढ़ाई के बाद आजीविका की तलाश में निकले अपने माता-पिता के साथ वे कलकत्ता आ गए। प्रतिभाशाली विद्यार्थी होने के नाते कुछ संस्थानों से मिली छात्रवृत्तियों के सहारे आगे की पढ़ाई की। कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज में, 1829-41 की अवधि में वेदांत; व्याकरण; साहित्य; नीतिशास्त्र; स्मृति एवं दर्शन की पढ़ाई की। 1839 में एक शास्त्रार्थ में इन्हें पुरस्कार स्वरूप विद्यासागर की उपाधि मिली तथा वे ईश्वरचंद्र बंद्योपाध्याय से ईश्वरचंद्र विद्यासागर हो गए। इसी वर्ष उन्होंने कानून की भी परीक्षा पास की। पढ़ाई के दौरान परिवार की आर्थिक मदद के लिए उन्होंने एक स्कूल में शिक्षक का भी काम किया।  1841 में 21 साल की कम उम्र में वे फोर्ट विलियम कॉलेज में संस्कृत के शिक्षक नियुक्त हुए। 1849 में जब वे संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल बने तो परंपरावादी विरोध के बावजूद कॉलेज के दरवाजे सभी जातियों तथा लड़कियों के लिए खोल दिए। प्रचलित ब्राह्मणीय शिक्षा व्यवस्था में छोटी समझी जाने वाली जातियों तथा स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था। संस्कृत के अलावा अंग्रेजी और बंगाली भाषाओं को भी शिक्षा के माध्यम के रूप में शामिल किया। वैदिक ग्रंथों के साथ यूरोपीय इतिहास, दर्शनशास्त्र और विज्ञान के पाठ्यक्रम शुरू किए। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ बंगला को सरल बनाकर आधुनिक बांगला की वर्णमाला विकसित किया।  
वे  दुनिया की व्याख्या ही नहीं करना चाहते थे, उसे बदलना भी चाहते थे। शीघ्र ही वे 19वीं सदी की शुरुआत में नव जागरण के प्रणेता राममोहन रॉय द्वारा शुरू किए गए समाज सुधार के ब्रह्मसमाज आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ बन गए। संपूर्ण निष्ठा ते साथ छुआछूत, बालविवाह जैसी दकियानूसी सामाजिक रूढ़ियों तथा कुरीतियों; स्त्रियों, खासकर विधवाओं की बदहाली के उन्मूलन के पैरोकार बन गए। इसतरह वे तथाकथित गौरवशाली, सनातन परंपराओं के विरोधी थे, जिन्हें संघ दैविक मानता है। संघ के विचारक माधवराव सदाशिव गोलवल्कर समानता को अप्राकृतिक मानते हैं। 1990 में जैसे ही तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय की दिशा में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की तो लाल कृष्ण अडवाणी के नेतृत्व में, भाजपा उनकी सरकार गिराकर, सोमनाथ-अयोध्या की रथयात्रा पर निकल पड़ी।
उम्रदराज, धनी बंगाली कम उम्र की लड़कियों से शादी कर लेते थे परिणाम स्वरूप बहुत सी महिलाएं कम उम्र में विधवा हो जाती थीं और नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त होती थीं। विद्यासागर ने बाल विवाह के विरुद्ध तथा विधवा पुनर्विवाह के लिए सघन आंदोलन चलाया तथा 1856 में विधवापुनर्विवाह कानून पारित करवाने में सफल रहे। उन्होंने अपने बेटे की शादी एक विधवा से कराया।



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