लखनऊ में उप्र पुलिस द्वारा विवेक तिवारी की एंकाउंटर-हत्या पर मुझे उतनी ही तकलीफ है जितनी किसी की भी हत्या या अकाल मौत पर होती है। पीछे छूटे परिजनों की जिंदगी में उहा-पोह मच जाता है। विवेक के परिवार के प्रति मेरी सहानुभुति है उन्हे दुख के इस पहाड़ को झेलने की ताकत मिले। इंसान की जिंदगी या प्रतिष्ठा की कीमत पैसे में नहीं आंकी जा सकती। आज से 30 साल पहले लखनऊ विवि में समाजशास्त्र में पीयचडी कर रहे मेरे 22 साल के भाई की हत्या हो गयी थी। मेरी मां की उम्र 10 साल बढ़ गयी। मैं 6-7 महीने विक्षिप्त मनोस्थिति में रहा। यह भूमिका इसलिए कि कहीं आप मेरी बात को पुलिस की पक्षधरता न मान लें। लेकिन जरा सोचिए विवेक तिवारी का नाम अगर मुसलमानों जैसा होता और उनकी सहकर्मी ता सना खान की जगह हिंदुओं सा होता तो क्या होता? एक वीडियो में एक आला पुलिस अधिकारी लिखित प्रेस नोट से मीडिया के सवालों जवाब देति हुए बता रहा था कि यह मुठभेड़ सुनियोजित नहीं थी, सिपाहियों ने तैश में आकर गोली मार दी। इसका मतलब बाकी 'मुठभेड़-हत्याएं' सुनियोजित हैं?
वैसे इस अधिकारी की बात सुनियोजित हत्याओं के पैटर्न से मेल खाती हैं और पुलिस वाले योगी द्वारा सम्मानित होते हैं, योगी ताल ठोंककर धमकी देते हैं कि एक-एक 'अपराधी' को ठिकाने लगाएंगे। बाकी मुठभेड़ों का पैटर्न यह रहा है कि अपराधी/आतंकवादी मोटर साइकिल पर जा रहे होते हैं, मुखविरों सूचना के आधार पर पुलिस पीछा करती है वे पुलिस पर गोली चलाते हैं, पुलिस आत्मरक्षा में गोती चलाती है और वे मर जाते हैं। सब इनामी बदमाश निकलते हैं और 'संयोग से' जाटव, गूजर या मुसलमान होते हैं । मृतकों के घर वाले लेकिन बताते हैं ( जैसे लीगढ़ मुठभेड़) कि पुलिस वाले उन्हें घर से उठा कर ले जाते हैं। किसी भी मुठभेड़ की जांच नहीं होती। अखबार और चैनल वाले पुलिस का प्रेस बयान छाप देते हैं। किसी तथाकथित मुठभेड़ की कोई जांच की टीम नहीं बनती। इस घटना में योगी समेत सभी आला अधिकारी विशेष जांच और जरूरत पड़ने पर सीबीआई जांच का आश्वासन तथा विवेक के परिवार को 'समुचित' मुवाअजे और उनकी पत्नी को सरकारी नौकरी का वायदा कर चुके हैं।
इस मुठभेड़ में संयोग से संदिग्ध मोटर साइकिल पर नहीं कार में थे और भागते हुए नहीं पुलिस पर हमला किए और पुलिस को आत्मरक्षा में उन पर गोली चलानी पड़ी बल्कि वे पुलिस वालों को कुचलकर मार देना चाहते थे (आरोपी सिपाही के अनुसार) और आत्म रक्षा में पुलिस ने गोली चलाई जो विं़ड स्क्रीन को चीरते हुए ड्राइवर के गले के आर-पार निकल गयी। वैसे पुलिस वाला कार की टायर पर भी गोली चला सकता था। मैं छात्र जीवन से ही, छात्र-आंदोलनों में शिरकत के चलते जबसे पुलिस वालों से पाला पड़ा यह उलझन सुलझा नहीं पाया कि वर्दी पहनते ही गरीब मजदूर-किसानो के लड़कों की संवेदना इतनी अमानवीय-बर्बर कैसे हो जाती है? पुलिस अकेडमी का प्रशिक्षण, वर्दी का नशा या और कुछ। पुलिस लॉक-अप में पुलिसियों की क्लास लेने के कुछ रोचक अनुभव फिर कभी शेयर करूंगा।
विवेक तिवारी की हत्या की जांच होनी चाहिए और दोषी पुलिसकर्मियों को समुचित सजा मिलनी चाहिए लेकिन बाकी मुठभेड़-हत्याओं की भी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और दोषियों को समुचित सजा।
जो भी है ठीक नहीं है। पर क्या करें बन्दूक और गोली उनकी है।
ReplyDeleteबंदूकें और गोली जनता के पैसे से जनता को मारने के लिए हैं।
Deleteवर्त्तमान व्यवस्था में पुलिस फ़ोर्स एक राजनैतिक फ़ोर्स की तरह काम कर रहे है .सरकार के पास कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं है सिवाए लोगो पर दमन करने का जो काम पुलिस कर रही है. पुलिस के बल पर सरकार चल रही है
ReplyDeleteagree
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