Rajesh Kumar Singh & Rakesh Tiwari बिल्कुल सही कह रहे हैं, हम सबकी वही हाल है। विरासत में मिले मूल्य शुरुआती सामाजीकरण तथा संस्कृतिकरण के प्रभाव में हम अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं जिनसे मुक्ति के लिए हमें कठिन आत्म-मंथन और आत्म-संघर्ष करना पड़ता है। 0-6 की उम्र बहुत नाजुक होती है बच्चा मोम की तरह होते हैं, जो आकार देना चाहे दे दें। कुछ बच्चे मेरी तरह सवाली प्रवृत्ति के होते हैं मैंने अपनी बेटियों को कोई आकार देने की कोशिस नहीं की तथा उन्होंने स्वतः अपने रास्ते बनाया। मैं तो कट्टर कर्मकांडी परिवार में पला, 3-4 से ही बाबा के साथ भक्तिभाव से रामचरित मानस के दोहा-चौपाइयां दुहराते हुए बड़ा हुआ। ठाकुर को चंदन लगाने के बाद खुद के पहले मुझे चंदन लगाते थे। जब मैं रामचरित मानस खुद टीका समेत (गोरखपुर प्रेस) खुद पढ़ने लगा और राम के अनैतिक व्यवहार के बारे में बाबासे पूछता तो वे ईश्वर की लीला और ईश्वर की महिमा कहकर या कोई और चौपाई सुनाकर टाल देते। मैं सुबह स्नान करके शिवलिंग पर जल चढ़ाकर ही कुछ खाता-पीता था। 10 के पहले ताम-झाम से जनेऊ हुआ और 13 में तोड़ने के पहले तक मिशनरी भाव से उसके नियमों का पालन करता था। सवाली प्रवृत्ति के चलते 17 तक प्रामाणिक नास्तिक हो गया। ज्ञान की प्रक्रिया सिर्फ लर्निंग नहीं अनलर्निंग भी है। विरात में मिले मूल्यों पर सवाल करना और उनकी जगह तर्कसम्मत मुल्य प्रतिस्थापित करना। ज्ञान की शुरुआत अपने पर सवाल से शुरू होता है और जो पढ़ाया जाता है उस पर सवाल के रास्ते हर बात पर सवाल तक जाता है, भगवान इससे परे नहीं। जिसका प्रमाण नहीं वह असत्य है। प्रमाण मिल गया तो राय बदल देंगे। जब भगवान ही नहीं तो पैगंबर-अवतारों का सवाल ही नहीं उठता। आलोचना भाव से रामचरित मानस पढ़ें तो पाएंगे राम छल-कपट के मर्दवादी-व्रणाश्रमी मूल्यों के प्रतिनिधि हैं। सांस्कृतिक क्रांति राजनैतिक क्रांति से मुश्किल है, जिसे मैं मुहावरे की भाषा में कहता हूं, "बाभन (हिंदू-मुसलमान; भूमिहार-राजपूत; अहिर-बनिया....) से इंसान बनना मुश्किल जरूर है लेकिन सुखद।
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